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॥४६५H
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पद्मनान्दपश्चविंशतिका । शक्नोति कर्तुमिह कः स्तवनं समस्तविद्याधिपस्य भवतो विबुधार्चिता ः।
तत्रापि तज्जिनपते कुरुते जनो यत्तचित्तमध्यगतभक्तिनिवेदनाय ॥ ३ ॥ अर्थः-हे प्रभो आप समस्तविद्याओंके स्वामी हैं और आपके चरणोंकी बड़े २ देव अथवा बड़े २पंडित भाकर पूजन करते हैं इसलिये संसारमें आपकी स्तुतिके करनेकोलिये कोई भी समर्थ नहीं है तो भी हे जिनेन्द्र जो लोग आपकी स्तुति करते हैं वे केवल अपने चित्तमें प्राप्त जो भक्ति उसके निवेदन करनेके लिये ही करते हैं और दूसरा कोई भी कारण नहीं है ॥ ३ ॥
नामापि देव भवतः स्मृतिगोचरत्वं वाग्गोचरत्वमथ येन सुभक्तिभाजा।
नीतं लभेत स नरो निखिलार्थसिद्धिं साध्वी स्तुतिर्भवतु मा किल कात्र चिंता ॥४॥ अर्थः हे जिनेन्द्र हे प्रभो जो आपका भक्त मनुष्य आपके नामको भी स्मरण करता है अथवा आपके नामको वचनद्वारा कहता भी है उस मनुष्यको भी संसारमें समस्त प्रकारकी सिद्धियोंकी प्राप्ति होजाती है तब आपकी उत्तमरीतिसे स्तुतिहो अथवा मतहो कोई भी चिंता नहीं ॥
भावार्थ:-जो मनुष्य आपकी स्तुति तथा भक्ति करता है वह किसी न किसी लाभकेलिये ही करता है यदि उसभव्यजीवको आपके नामके स्मरणसे अथवा आपके नामके उच्चारण करनेसे ही समस्त प्रकारकी सिद्धियां प्राप्त होजावें तो चाहै आपकी स्तुति उससे उत्तमरीतिसे हो या न हो कोई चिंता नहीं ॥१॥
एतावतेव मम पूर्यत एव देव सेवां करोमि भवतश्चरणदयस्य ।
अत्रैव जन्मनि परत्र च सर्वकालं न त्वामितः परमहं जिन याचयामि ॥ ५॥ यह श्लोक ब. पुस्तक नदी है मालूम होता है लेखककी पाने छुटगया है क्योंकि यह कोक प्रकरणरो पर्नया च रखता॥
११.१०००००000000000000000000०००००००००००००००००००००००००००
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