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॥४३९
पचनान्दपश्चविंशतिका । दृष्टिसे देखता है उसको अशुभकाँका बंध होता है जिससे उसको संसारमें नानाप्रकारके दुःखोंका सामना करना पड़ता है) इसलिये इसप्रकार अपने आत्मस्वरूपमैं लीन तथा आश्चर्यकारी चेष्टाको धारण करनेवाके श्रीमछिनाथभगवान इसलोको जयवंत रहो ॥ १९ ॥
मुव्रतनाथभगवानकी स्तुति । विहाय नूनं तृणवत्स सम्पदं मुनिव्रतैर्योऽभवदत्र सुव्रतः
जगाम तद्धामविरामवर्जितं मुबोधहध्ये स जिनः प्रसीदतु॥ अर्थ:-जो मुव्रतनाथमुनि, समस्तपदार्थोको निश्चयसे तृणकेसमान छोड़कर व्रतोंका धारणकरनेसे सुव्रतनामको धारणकरतेहुए और जो नाशकर रहित (अविनाशी) मोक्षपदको प्राप्तहुए तथा जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानके धारी हैं ऐसे वे सुव्रतनाथ भगवान मेरेऊपर प्रसस हों।
भावार्थ:-जो उत्तम ब्रतोंको धारण करनेवाला हो उसको सुन्नत कहते हैं बीसवे तीर्थकारका जो मुवतनाम पड़ा है सो इसलिये पड़ा है कि उन्होंने समस्त संपदाओंका त्यागकर प्रतोंको धारण किया है इस लिये इसप्रकार व्रतोंको पालनकेकारण सुव्रतनामको धारण करनेवाले तथा अविनाशी मोक्षपदको प्राप्त और सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानके धारी श्रीसुव्रतनाथममवाम मुझपर प्रसन्न हों ऐसी मेरी प्रार्थना है ॥२०॥
- नमिनाथतीर्थकरकी स्तुति । परम्परायत्सतयातिदुर्बलं चलं स्वसौख्यं वदसौख्यमेव तत्
अदः अमुच्यात्मसुखे कृतादरो मामिर्जिनो यः स ममास्तु मुक्तये ॥ अर्थः--जो नमिनाथभगवान पराधीनतासे प्राप्त तथा पर (भिन्न) और अत्यंत दुर्बल तथा चंचल ऐसा
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