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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४३८॥ 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000 पचनन्दिपश्चविंशत्तिका । अर्थः-नमस्कार करतेहुए जो देवता उनके मस्तकोंपर मुकुटोंमें लगेहुए जो देदीप्यमान रन उनकी जो कान्ति उससे भी है अधिक प्रभा जिनकी ऐसे जिस अरनाथ जिनेन्द्रके चरणोंके नख, संसाररूपी घस्में पापरूपी अंधकारको नाशकरनेवाले वीपकोंके समान शोभित होते हैं वे अरनाथभगवान इसलोकमें जयवंत हैं। भावार्थ:-जिसप्रकार दीपक अंधकारको नाश करता है उसीप्रकार अत्यंत देदीप्यमान भगवानके चरणके नख भी पापरूपी अंधकारको नाश करते हैं अर्थात् जो भव्यजीव भगवानके चरणोंके नखोंकी आराधना करते हैं उनके समस्तपाप नष्ट हो जाते हैं ॥ १८ ॥ मल्लिनाथभगवानकी स्तुति । सुहृत्सुखी स्यादहितः सुदुःखितः खतोप्युदासीनतमादपि प्रभोः यतः स जीयाजिनमल्लिरेकतां गतो जगविस्मयकारचोष्टितः॥ अर्थः-यद्यपि मल्लिनाथभगवान स्वयं उदासीन हैं तो भी जिन मल्लिनाथ प्रभूसे उनके ही भक्त सुख ॥ पाते हैं तथा उनके शत्रु दुःख पाते हैं इसलिये ऐसे वे आत्मखरूपमें लीम तथा समस्तजगतको आश्चर्य करनेवाली चेष्टाको धारण करनेवाले श्रीमाल्लिनाथभगवान सदा इसलोकमें जयवंत प्रवों । भावार्थ:-यद्यपि यहबात अनुभव गोचरं है कि जो मनुष्य उदासीन होता है अर्थात् जो मित्र शत्रुको समान मानता है उससे न तो मित्र मुस्त्री होते हैं और न शत्रु दुःखी ही होते हैं कि मछिनाथभगवानमें यह विचित्रता है कि वे स्वयं उदासीन होनेपर भी अपने भक्तोंको सुनके देनेवाले हैं तथा निंदकोंको दुःखके देनेवाले हैं (अर्थात जो मनुष्य उनकी सेवा तथा भाक्त करता है उसको शुभकर्मका बंध होता है जिस से उसको शुभकर्मके फलस्वरूप सुख की प्राप्ति होती है तथा जो मनुष्य उनकी निंदा करता है उनको घृणाकी ॥४८॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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