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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपञ्चविंशतिका । इन्द्रियोंसे उत्पन्नहुआ सुख दुःखस्वरूप ही है ऐसा समझकर तथा इन्द्रिय संबंधी सुखको छोड़कर आत्मसंबंधी सुखमें आदर करतेहुए वे श्रीनमिनाथ भगवान मुझे मुक्तिकेलिये हों । भावार्थः——— इन्द्रियोंसे उत्पन्नहुआ सुख पराधीन है और वास्तविक सुखसे भिन्न है अत्यंत दुर्बल है तथा चंचल है और वह सुख नहीं दुःखखरूप ही है किंतु आत्मसंबंधी सुख स्वाधीन है खीय ( अपना ) है दुर्बलता रहित है स्थिर है और वही वास्तविक सुख है ऐसा भलीभांति समझकर जो नमिनाथ भगवान इन्द्रियसंबंधी सुखको छोड़कर आत्मसंबंधी सुखमें भलीभांति आदर करतेहुए वे श्रीनमिनाथ भगवान मुझे मुक्ति के लिये होवें अर्थात् मुझे मुक्ति देवें ऐसी मेरी प्रार्थना है ॥ २१ ॥ अरिष्टसंकर्तनचक्रनेमितामुपागतो भव्यजनेषु यो जिनः अरिष्टनेमिर्जगतीतिविश्रुतः स ऊर्जयन्ते जयतादितः शिवम् ॥ अर्थः – जो भगवान भव्यजनोंके अशुभकर्मोके नाशकरनेमें चककी धारापनेको प्राप्त हैं इसीलिये जो संसारमें अरिष्टनेमि इसनामसे प्रसिद्ध हैं तथा जो गिरनारपर्वतसे मोक्षको पधारे हैं वे अरिष्टनेमिभगवान सदा इसलोकमें जयवंत रहो । भावार्थः – जिसप्रकार चक्रकी धारा छेदनकरनेमें पैनी रहती है उसीप्रकार भगवान भी भव्यजीवोंके अशुभकमौके नाशक हैं अर्थात् भगवानकी कृपासे भव्यजीवोंके अशुभकर्म नष्ट हो जाते हैं इसीलिये जो भव्यजीवोंके अशुभकर्मों के नाशकरनेमें चक्र की धाराके समान है अतएव जिन्होंने अरिष्टनेमि इसनामको धारणकिया है तथा जिन्होंने परमपूज्य श्रीगिरनारपर्वतसे मोक्षपाई है वे श्रीअरिष्टनोमभगवान सदा इसलोक में जयवंत रहो ॥ २२ ॥ For Private And Personal ॥४४०॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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