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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 1000000००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००04016000 पवनन्दिपश्चविंशतिका । भावार्थ:-कोईठग किसीमनुष्यपर मोहनधूलि (जादू) डाल देवे तो जिसप्रकार उसको कुछभी नहीं सूझता तथा वहठग उसकी सबचीजोंको ठगलेता है उसीप्रकार इससंसारमें मोहमी एक बड़ाभारी ठग है तथा उसने भी प्राणियोंके मस्तकोंपर मोहनधूलि डालरक्खी है इसलिये उन प्राणियोंको कुछ भी हिताहितका विवेक नहीं है अर्थात् मोहद्वारा उनका सबविवेक ठगागया है किंतु वह मोहनथूलि श्रीपुष्पदंतभगवानके दोनो चरण कमलोंको प्रणाम करनेसे बातकीबात पलभरमें नष्ट हो जाती है इसलिये आचार्य कहते हैं कि हम ऐसे श्रीपुष्पदन्तभगवानको नमस्कार करते हैं ॥९॥ शीतलनाथभगवानकी स्तुति । सतां यदीयं वचनं सुशीतलं यदेव चन्द्रादपि चन्दनादपि तदत्र लोके भवतापहारि यत् प्रणम्यते किं न स शीतलो जिनः॥ अर्थः--जिस शीतलनाथभगवानके वचन सज्जनोंको चन्द्रमा तथा चंदनसे भी अधिक शीतल जानपडते हैं और जो वचन समस्तसंसारके तापोंके नाश करनेवाले हैं ऐसे शीतलनाथभगवान क्या नमस्कारके पात्र नहीं हैं ? अवश्य ही हैं। भावार्थः-यद्यपि संसारमें चंद्रमा तथा चंदन भी शीतलपदार्थ हैं तथा तापके दूरकरनेवाले हैं किंतु ये बहुत थोड़े शीतल पदार्थ हैं तथा थोड़ेही तापको नाश कर सकते हैं किंतु भगवान शीतलनाथके वचन अत्यंत शीतल तथा समस्तसंसारके तापोंको दूरकरनेवाले हैं इसलिये ऐसे शीतलनाथभगवानको मस्तक झुकाकर नमस्कार है॥१०॥ श्रेयोनाथभगवानकी स्तुति । जगत्रये श्रेय इतो ह्ययादिति प्रसिद्धनामा जिन एष वन्द्यते यतो जनानां बहुभक्तिशालिनां भवंति सर्वे सफला मनोरथाः॥ 1000000000000000000000000000००००००००००००००००००००००००००००.. ॥४३३॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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