SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 445
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४३२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । कामदेवकी कुछ भी तीन पांच न चली उन श्रीसुपार्श्वजिनेंद्रकों में सर्वदा मस्तकझुकाकर नमस्कार करता हूं॥ ७॥ चन्द्रमभभगवान की स्तुति । शशिप्रभो वागसृतांशुभिः शशी परं कदाचिन्न कलंकसंगतः । नवापि दोषाकरतां ययौ यतिर्जयत्यसौ संसृतिपापनाशनः ॥ ८ ॥ अर्थः- जो चंद्रप्रभभगवान वाणीरूपी अमृतकी किरणोंसे यद्यपि चंद्रमा है परन्तु कभीभी कलंककर के युक्त नहीं हैं और न कभी दोषाकरताको ही प्राप्तहुवे हैं तथा समस्त संसारके पापोंके नाशकरनेवाले हैं ऐसे यति चंद्रप्रभभगवान सदा इसलोकमें जयवंत हैं । भावार्थ:- जिसप्रकार चंद्रमा अपनी अमृतमयी किरणोंसे जीवोंको आनंदका देनेवाला होता है उसीप्रकार चंद्रप्रभभगवान भी अपने वचनामृत कीवर्षासे जीवोंको आनंदके देनेवाले हैं अतः इसरीति सेतो चंद्रप्रभभगवान चंद्रमा ही हैं किन्तु जिसप्रकार चंद्रमा कलंककरसहित हैं तथा दोषाकर है उसप्रकार भगवान कलंकसहित नहीं हैं किन्तु कलंककर रहितद्दी हैं तथा दोषाकर नहीं हैं किंतु दोषोंकर रहितही हैं और समस्त संसारके नाशकरनेवाले हैं इसलिये ऐसे अपूर्व चंद्रमा श्रीचंद्रप्रभभगवान सदा इसलोकमें जयवंत हैं ॥८॥ पुष्पदंत भगवान की स्तुति । यदीयपादद्वितयप्रणामतः पतत्यघो मोहनधूलिरंगिनाम् । शिरोगता मोहठकप्रयोगतः स पुष्पदंतः सततं प्रणम्यते ॥ ९॥ अर्थ ः— मोहरूपी ठगद्वारा प्राणियों के शिरोमें स्थापित मोहनरूपी धूलि जिस पुष्पदंतभगवान के दोनोंचरणकमलोंके प्रणामसेही पलभरमें नीचे गिरपड़ती है उनपुष्पदंत भगवानको हम सदा प्रणाम करते हैं । For Private And Personal ॥॥ ४३२ ॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy