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पचनन्दिपञ्चविंशतिका ।
तथा जो अपने वचनरूपी अमृतको वर्षानेवाले थे ऐसे वे श्रीपद्मप्रभभगवान हमारी रक्षा करें अर्थात् ऐसे पद्मप्रभभगवान को हम नमस्कार करते हैं ।
॥ ४३१।।
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भावार्थ:-- जिसप्रकार चंद्रमा आकाश में नक्षत्रोंसे वेष्ठित हुवा अधिक शोभाको प्राप्त होता है उसी प्रकार जो पद्मप्रभभगवान समवशरण में समस्त जीवोंके मध्य में अत्यंत शोभित होते थे तथा जिसप्रकार चंद्रमा अपने प्रकाशसे जगतको आनंदका देने वाला है उसीप्रकार जो पद्मप्रभभगवान अपने उपदेशसे जीवोंका आनंदके देनेवाले थे अर्थात् जिनके उपदेशको सुनकर भव्यजीव आनंद सागरमें मन हो जाते थे ऐसे श्री पद्मप्रभभगवान हमारी रक्षा करें ॥ ६॥
सुपा आर्श्वनाथ की स्तुति । नरामराहीश्वरपीडने जयी धृतायुधो धीरमना झषध्वजः । विनापि शस्त्रैर्ननु येन निर्जितो जिनं सुपार्श्व प्रणमामि सर्वदा ॥
अर्थः – जो कामदेव नरेन्द्र देवेन्द्र फणीन्द्र को भी दुःखका देनेवाला है और जो शस्त्रोंका भारी है तथा जिसका मन अत्यंतधीर है और जिसकी मीनकी ध्वजा है ऐसाभी कामदेव जिस सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्रने विना ही शस्त्रकें पलभर में जीत लिया उन सुपार्श्व भगवानको में सर्वदा मस्तक झुकाकर नमस्कार कारता हूं ॥
भावार्थः यद्यपि संसारमें नरेन्द्र देवेन्द्र तथा फणीन्द्रभी बड़े बीर गिने जाते हैं किन्तु कामदेव के सामने जिनकी कुछ भी वीरता नहीं चलती अर्थात् जो कामदेव इनको भी जीतनेवाला है तथा जिस कामदेव के पास सदा शस्त्र ( बाण ) रहते हैं और जो धरिमन तथा मीनकी ध्वजाकी घारी है उस कामदेवको भी विना शस्त्र के जिन सुपार्श्वनाथभगवानने बातकी बातमें जीतलिया अर्थात् जिन भगवान के सामने तीन लोक के विजयी भी
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॥४३९॥