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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४२मा काका ..00000000000000000000000000000000000000000011००कर पचनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः-तीनोंलोकमें समस्तकल्याणों की प्राप्ति श्रीश्रेयोनाथभगवानसे होती है इसलिये ये जिनेन्द्र, श्रेयोनाथ इसनामसे प्रसिद्ध है तथा जो भव्यजीव इन श्रेयोनाथभगवानमें गाढ़भक्तिकर सहित हैं उन भव्य जीवोंके इन्ही भगवानकी कृपासे समस्तममोरथ सिद्ध होते हैं । भावार्थ:-११ ग्यारहवें तीर्थंकरका जो श्रेयोनाथभगवान नाम पड़ाहै उसका कारण यही है कि तीनोंलोकमें उन्हीकी कृपासे कल्याणोंकी प्राप्ति होती है और उन्हीकी कृपासे भव्यजीवोंके समस्तमनोरथ सिद्ध होते हैं ॥११॥ वासुपूज्यतीर्थकरकी स्तुति । पादाब्जयुम्मे तव वासुपूज्य जनस्य पुण्यं प्रणतस्य तद्भवेत्। यतो न सा श्रीरिह हि त्रिविष्टपे न तत्सुखं यन्न पुरः प्रधावति ॥ अर्थ:-हे वासुपूज्यजिनेश जो भव्यजीव आपके दोनों चरणकमलोंको नमस्कार करनेवाला है उस भव्यजीवको इस संसारमें उसअपूर्व पुण्यकी प्राप्ति होती है कि जिस पुण्यकी कृपासे इनतीनोंलोकमें न तो कोई ऐसी लक्ष्मी है जो आगे दौड़कर न आवी हो और न कोई ऐसा सुख है जो न मिलता हो । भावार्थ:-हे वासुपूज्यजिनेश जो मनुष्य आपके चरणकमलोंकी सेवा करनेवाले है उनमनुष्योंको अपूर्व पुण्यकी प्राप्ति होती है तथा उस पुण्यकी कृपासे वे इस संसारमें उत्तमोत्तम लक्ष्मीको प्राप्तकर लेते हैं और समस्तप्रकारके मुख उनके सामने पलभरमें आकर उपस्थित होजाते हैं ॥ १२॥ विमलनाथतीर्थकरकी स्तुति । मलैर्विमुक्तो विमलो न कैर्जिनो यथार्थनामा भुवने नमस्कृतः तदस्य नामस्मृतिरप्यसंशयं करोति वैमल्यमघात्मनामपि ॥ ....00000000000000000000000000000000000000000000000000 ॥४४॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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