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पजनन्दिपञ्चविंशत्तिका । जिनेन्द्र यद्यपि संसारमें बहुतसे धर्म मौजूद है परंतु वे सर्बधर्म प्राणियोंको दुःखोंके ही कारण हैं अर्थात् जो प्राणि उन धाँको धारण करता है उसको अनेकगतियों में भ्रमणहीकरना पड़ता है तथा उन गतियोंमें नाना प्रकारके दुःखोंको वह उठाता है क्योंकि उन धाँमें वस्तुका वास्तविक स्वरूप जोकि जीवोंको हितकारी है नहीं बतलाया गया है किंतु हे प्रभो आपके धर्ममें वस्तुका यथार्थस्वरूप भलीभांति बतलाया गया है अर्थात असली मोक्षमार्ग आदिको विस्तृत रीतिसे समझाया गया है इसलिये जो प्राणी आपके धर्मके धारण करनेवाले हैं वे शीघ्र ही इस भयंकर संसाररूपी समुद्रको तर जाते है इसलिये आपका धर्म ही उत्तम धर्म है ॥४॥
अण्णो को तुह पुरउ वग्गइ गुरुयनणं पयासंसो जम्मि तइ परमियत्तं केशणहाणंपि जिण जायं ।।
अन्यः कः तव पुरतो बल्मकि गुरुवं प्रकाशयम् ।।
यस्मिन् वयि प्रमाणवं केशनखानायपि जिन जातम् ।। अथ:-हे प्रभो हे जिनेन्द्र जब आपके केश तथा नख भी परिमित हैं अर्थात बढ़ते घटते नहीं तब ऐसा कौन है जो आपके सामने अपनी गुरुताको प्रकाशित करता हुआ वोलने की सामर्थ्य रखता हो।
भावार्थः-जब अचेतन भी नख तथा केश आपके प्रतापसे सदा परिमित ही रहते हैं अर्थात् न कभी बढते हैं तथा न कभी घटते हैं तब जो आपके प्रतापको जानता है वह कैसे आपके सामने अपनी महिमाको प्रकटकर सकता है तथा आपके सामने अधिक बोल सकता है ॥४१॥
सोहइ सरीरं तुह पहु तिहुयणजणणयणविंबविच्छुरियं पडिसमयमचियं चारुतरलनीलुप्पलेहिंव ॥
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