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पचनन्दिपश्चविंशतिका । शोभते शरीरं तव प्रभो त्रिभुवनयनविविछुरितं
प्रतिसमयमार्थतं चारुतरलनीलोत्परिव ।। अर्थः-हे प्रभो हे जिनेन्द्र तीनोंलोकके जीवोंके जो नेत्र उनकी जो प्रतिबिंब उनसे चित्रविचित्र आपका शरीर ऐसा मालूम पड़ता है मानों सुंदर तथा चंचल नीलकमलोंसे प्रतिसमय पूजित ही है क्या ?
भावार्थ:--हे जिनेन्द्र आपका शरीर अत्यंत स्वच्छ सोनेके रंगका है और जीवोंके नेत्रोंको उपमा नीलकमलोंसे दीगई है इसलिये जिससमय वे जीव आपके दर्शन करते हैं उससमय उनके नेत्रों के प्रतिबिंब आपके शरीरमें पड़ते है उननेत्रोंके प्रतिबिंवको अनुभवकर ग्रंथकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि हे प्रभो वे नेत्रोंके प्रतिबिंब नहीं है किंतु प्रतिसमय समस्तजीव आपकी नीलकमलोंसे पूजा करते हैं इसलिये वे नीलकमल हैं ॥ ४२ ॥
अहमहमिआये णिवडति णाह छुहियालिणोब्व हरिचक्खू तुज्झच्चिय णहपहसरसज्झट्टियचलणकमलेसु ॥
महमहमिकया निपतति नाथ शुचितालय इव हरिचर्कषि
तव भर्थितनखप्रभासरोमध्यास्थितचरणकमळेषु ॥ अर्थः--हे जिनेश हे प्रभो आपके पूजित जो नख उनकी जो प्रभा (कांति) वही हुआ सरोवर उसके मध्यमें स्थित जो चरणकमल उनमें भूखेभ्रमरोंके समान इन्द्रोंके नेत्र अहम् अहम् (मैं मैं) इसरीतिसे गिरते हैं।
भावार्थ:-जिसप्रकार कमलोंमें सुगंधके लोलुपी भ्रमर बारम्बार आकर गिरते हैं उसीप्रकार हे जिनेन्द्र जिससमय इन्द्र आकर आपके चरणकमलोंको नमस्कार करते हैं उससयय आपके चरणकमलों में भी उन इन्द्रोंके नेत्ररूपी भ्रमर पड़ते हैं और वे नेत्र काले २ भ्रमरोंके समान मालूम पड़ते हैं ॥ ४३ ॥
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