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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsur Gyanmandir ॥३७४। ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पअनन्दिपञ्चविंशतिका । मोहमहाफणिडको जणो विरायं तुमं पमुत्तूण इयरणाए कह पह विवेयणो चेयणं लहा॥ मोहमहाफणिदष्टो जनो विरागं त्वां प्रमुच्य - इतराज्ञया कथं प्रभो चेतना लभते ॥ अर्थः-हे प्रभो हे जिनेश जो पुरुष मोहरूपी प्रवल सर्पसे काटा गया है अर्थात् जो अत्यंत मोही है वह मनुष्य समस्तप्रकारके रोगोंसे रहित वीतराग आपको छोड़कर आपसे भिन्न जो कुदेव हैं उनकी आज्ञासे कैसे चेतनाको प्राप्त कर सकता है अर्थात् वह कैसे ज्ञानी बन सकता है? भावार्थ:-जो जीव यह पुत्र मेरा है यह स्त्री मेरी है तथा यह संपत्ति मेरी है इसप्रकार अनादिकालसे मोहकर ग्रस्त हो रहा है अर्थात् जिसको अंशमात्र भी हिताहितका ज्ञान नहीं हैहे प्रभो उस मनुष्यको कभी भी आपसे भिन्न कुदेवादिकी आज्ञासे चेतनाकी प्राप्ति नहीं हो सकती है अर्थात् वह मनुष्य कदापि कुदेवादि के मार्गमें गमन करनेसें ज्ञानका संपादन नहीं कर सकता ॥ ३९ ॥ भवसायरम्मि धम्मो धरइ पडतं जणं तुहाचेव सवरस्सव परमारणकारणामियराण जिणणाह॥ भवसागरे धर्मों धरति पतंतं जनं तवैव । शवरस्येव परमारणकारणमितरेषां जिननाथ ॥ अर्थ:-हे प्रभो हे जिनेश संसाररूपी समुद्र में गिरतेहुए जीवोंको आपका धर्म ही धारण करता है किंतु हैं जिनेन्द्र आपसे भिन्न जितनेभर धर्म हैं वे भीलके धनुषके समान दूसरोंके मारनेमें ही कारण हैं। भावार्थ-जिसप्रकार भीलका धनुष जीवोंको मारने ही वाला है रक्षा करनेवाला नहीं उसीप्रकार हे 10..................000000000000000000000000000000000..." ॥३७४ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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