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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ++++6..100.10............. 6000०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० पचनन्दिपश्चविंशतिका । भावार्थः-यदि मार्ग साफ तथा चोरोंके भयकर रहित हो तो रस्तागीर जिसप्रकार बिना ही विनसे उसमार्गसे चलेजाते हैं उसीप्रकार हे भगवन् आपने भी जिसमार्गका उपदेश दिया है वह मार्ग भी साफ तथा सबसे बलवानमोहरूपाचोरकर रहित है इसलिये जो भव्यजीव सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्ररूपी रत्नत्रयके धारी हैं वे विना ही किसी विनके सुखसे उसमार्गसे मोक्षको चलेजाते हैं। सारार्थः-यदि मोक्षमार्गमें गमन करनेवाले प्राणियोंको रोकनेवाला है तो मोहरूपीचोर ही है इसीलिये भव्यजीव सहसा मोक्षको नहीं जाते। और हे भगवन् आपने मोहरहित मार्गका वर्णन किया है इसलिये भव्य जीव निर्विन मोक्षको चलेजाते हैं ॥ ३७॥ उम्मुहियम्मि तम्मि हु मोक्खणिहाणे गुणणिहाण तए केहिं ण जुणतिणाइव इयरणिहाणाइ भुवणम्मि ॥ उन्मुद्रिते तस्मिन् खलु मोक्षनिधाने गुणनिधान खया कैर्न जीर्णतॄणानीव इतरनिधानानि भुवने ॥ अर्थः-हे भगवन् हे गुणनिधान जिससमय आपने मोक्षरूपी खजानको खोलदिया था उससमय ऐसे कौनसे भव्यजीव नहीं हैं जिन्होंने सड़ेतृणके समान दुसरे २ राज्यआदि निधानोंको नहीं छोड़ दिया । भावार्थ:-हे जिनेश हे गुणनिधान जबतक भव्यजीवोंने मोक्षरूपी खजानेको नहीं समझा था तथा उसके गुणोंको नहीं जाना था तभीतक वे राज्यआदिको उत्तम तथा सुखका करनेवाला समझते थे किंतु जिस 4 समय आपने उनको मोक्षरूपीखजानेको खोलकर दिखादिया तव उन्होंने राज्य आदिक निधानोंको सड़ेहुए तृणके समान छोडदिया अर्थात् वे सब मोक्षरूपी खजानेकी प्राप्तिके इच्छुक हो गये ॥ ३८ ॥ .............................." For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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