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पअनन्दिपश्चविंशतिका । भावार्थ:-चाहै उस मनुष्यके स्त्री तथा धन हो और चाहे उसने समस्तघरके काम किये हुवे हो यदि वह परधन तथा परस्त्रीमें इच्छा रहित है वह भी जब देव कहलाता है तब जो सर्वथा स्त्रीका त्यागी है और सर्वथा धनका त्यागी है अर्थात् जिसके पास कणमात्रभी धन नहीं है और सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयसे विभूषित है तो वह क्यों नहीं देवोंका देव होगा और वह क्यों नहीं सज्जनोंके आदरका पात्र होगा ? अवश्यही होगा इसलिये मुनियोंको चाहिये कि वे स्त्री तथा धनमें सर्वथा इच्छाका त्याग करदेवें ॥ १८॥ कामिन्यादि विनात्र दुःखहतये वीकुर्वते तच्च ये लोकास्तत्र सुखं पराश्रिततया तद्दःखमेव ध्रुवम् । हित्वा तद्विषयोत्थमंतावरसं स्तोकं यदाध्यात्मिकं तत्तत्वेकदृशां सुखं निरुपमं नित्यं निजं नीरजम् ॥
अर्थः-स्त्री आदिके विना संसारमें दुःख होता है यह समझकर लोग दुःखके दूरकरनेकेलिये स्त्री आदिका स्वीकार करते हैं परंतु स्त्री आदिकमें जो सुख है सो पराधीनताके कारण दुःखही है इसलिये अंतमें विरस तथा थोड़ा जो विषयसे उत्पन्न सुख है उसको छोड़कर जो तत्त्वज्ञानियोंका आत्मसंबधी सुख है वही सुख उपमारहित तथा सदाकाल रहनेवाला और अपना तथा निर्दोष है ऐसा समझना चाहिये ॥
भावार्थः-जो अल्पज्ञानी दुःखके दूरकरनेकेलिये स्त्री भोजन आदिका स्वीकार करते हैं सो ठीक नहीं क्योंकि स्त्री भोजन आदिके स्वीकारसे दुःख दूर नहीं होता और न सुखही मिल सकता क्योंकि वह जो सुख है वह पराधीनताके कारण दुःखही है और वह विषयोत्थ सुख अंतमें विरस तथा थोड़ा है इसलिये ऐसे सुखको छोड़कर, तत्वज्ञानी पुरुष जो उपमारहित तथा निस्य और खीय तथा निर्दोष सुखका अनुभव करते हैं वास्तवमें वही सुख है ऐसा समझना चाहिये ॥ १९ ॥
अब आचार्य इसबातको वताते है कि जो पुण्यवान हैं वे भी यतीश्वरोंको नमस्कार करते हैं।
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