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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥३४५॥ पचनन्दिपञ्चविंशतिका। २ अनुचित काम नहीं करता है अर्थात् सबही अनुचित काम को करता है इतनेपरभी जिसको अंशमात्रभी परमार्थका ज्ञान नहीं ऐसा कोई कवि जिसमें भलीभांति शृंगारका वर्णन कियागया है ऐसे काव्यको बनाकर और भी निरंतर लोगोंको चतुर (स्त्रियों के सेवनमें प्रौढ़) करता रहता है। भावार्थ:-यह नीतिकारका सिद्धांत है कि जो पदार्थ त्यागने योग्य होता है उसमें मनुष्यकी बुद्धि विना उपदेशके प्रवेश कर जाती है, उपादेय पदार्थके ग्रहणकरनेमे उतनी जल्दी बुद्धि प्रवेश नहीं करती इसलिये जो पुरुष रागांध है उनकी एकतो विना उपदेशके ही स्त्रकि विषयमें बुद्धि प्रवृत्त होजाती है और जब उनकी बुद्धि स्त्री विषयमें फसजाती है तब वे अनेक प्रकारके अनुचित कामकर बैठते हैं। ऐसे होनेपर भी कविलोग अपनेको दयालु समझकर और भी उनकोलये शृंगारविशिष्ट काव्यों को बनाकर उनको स्त्रीविषयमें चतुर वनादेते हैं इसलिये ऐसे कवियोंको उत्तम कवि न समझकर कुकवि ही समझना चाहिये ॥ १७ ॥ अब आचार्यवर इसबातको बताते कि हैं जो मुनि स्त्री तथा धनका त्यागी है वह देवोंका देव है और सबोंका मानने योग्य है-- दारार्थादिपरिग्रहः कृतगृहव्यापारसारोऽपि सन् देवः सोऽपि गृही नरः परधनस्त्रीनिस्पृहः सर्वदा । यस्य स्त्री नतु सर्वथा नच धनं रत्नत्रयालंकृतो देवानामपि देव एव स मुनिः केनात्र नो मन्यते ॥ अर्थः-जिसपुरुषके स्त्रीका परिग्रह मौजूद है और धनका परिग्रह मौजूद है तथा जिसने समस्त गृहसंबंधी व्यापारको करलिया है ऐसा गृहस्थ भी मनुष्य, यदि परधन तथा पररत्री में निस्पृह है तो वहभी जव देव कहाजाता है तब जिसमुनिके न तो स्त्री है और न सर्वथा धनही है और जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र स्वरूप रत्नत्रयसे शोभित है वहतो देवोंकाभी देवहै ही। और उसमुनिकी सबही प्रतिष्ठा करते हैं । 60००००००००००००००००००००००००000000000000000000000०००००००० ॥३४५॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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