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॥३४॥
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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका ।
सौभाग्यादिगुणप्रमोदसदनैः पुण्यैर्युतास्ते हृदि स्त्रीणां ये सुचिरं वसंति विलसत्तारुण्यपुण्यश्रियाम् ॥ ज्योतिर्बोधमयं तदंतरदृशा कायात्प्रथक् पश्यतां येषां ता नतु जातु तेऽपि कृतिनस्तेभ्यो नमःकुर्वते ॥
अर्थः – वे मनुष्य सौभाग्य आदिगुण तथा आनंदके स्थानभूत जोपुण्य उनकर सहित हैं जोमनुष्य मनोहर जो यौवन अवस्था उससे पवित्र हैं शोभा जिनकी, ऐसी स्त्रियोंके मनमें चिरकालतक निवासकरते हैं और वे पुण्यवान पुरुष भी, जो मुनि अपनी प्रसिद्ध अंतर्दृष्टिसे सम्यग्ज्ञानमयतेजको शरीरसे जुदा देखने वाले हैं और जिनके पास स्त्री फटकनेतक भी नहीं पाती ऐसे मुनीश्वरोंको नमस्कार करते हैं ।
भावार्थः यद्यपि संसारमें वे मनुष्य भी पुण्यात्मा तथा धन्य है जो यौवन अवस्थासे शोभायमान स्त्रियोंके हृदयमें चिरकालतक निवासकरते हैं अर्थात् जिनको स्त्रियां हृदयसे चाहती हैं किन्तु उनसे भी धन्य वे यतीश्वर हैं जोकि अपनी अंतर्दृष्टिसे सम्यग्ज्ञानमय ज्योतिको जुदाकर देखते हैं और जिनके पास स्त्रियां स्वप्न में भी नहीं फटकने पातीं तथा वे पुण्यात्मा और स्त्रियोंके प्रिय भी मनुष्य, जिनको मस्तक झुकाकर नमस्कार करते हैं ॥ २० ॥ मनुष्यभवसे मोक्षकी प्राप्ति होती है इसलिये भव्यजीवोंको मनुष्यभव पाकर तपकरना चाहिये इसबातका आचार्य उपदेश देते हैं ।
दुष्प्रापं बहुदुःखराशिरशुचि स्तोकायुरल्पज्ञता ज्ञातप्रांतदिनः जराहतमतिः प्रायो नरत्वं भवे ॥ अस्मिन्नेव तपस्ततः शिवपदं तत्रैव साक्षात्सुखं सौख्यार्थीति विचिंत्य चेतसि तपः कुर्यान्नरो निर्मलम् ॥ अर्थः-जिसनरभवमें बहुत दुःखोंका समूह है और जिसमें अपवित्र तथा थोड़ी आयु है और जिसमें थोड़ा ज्ञानपना है तथा जिसमें अंतके दिनका निश्चय नहीं है "अर्थात् कब मरण होगा यहबात मालूम नहीं है" और जिसनरभवमें बुद्धि वृद्धावस्थाकर नष्ट है ऐसा इससंसार में यह नरभव है किंतु तपकी प्राप्ति इसी
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