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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥ ३३३॥ www.kobatirth.org पद्यमन्दिपश्ञ्चविंशतिका । ब्रह्मचर्यरक्षावर्त्यधिकारः । शार्दूलविक्रीड़ित । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir क्षेपेण जयंति ये रिपुकुलं लोकाधिपाः केचन द्राक्तेषामपि येन वक्षसि दृढ़ रोपः समारोपितः । सोsपि प्रोद्गतविक्रमस्मरभटः शान्तात्मभिर्लीलया यैः शस्त्रग्रहवर्जितैरपि जितः स्तेभ्यो यतिभ्यो नमः ॥ अर्थः-संसारमें कई एक ऐसेभी राजा हैं जोकि अपनी भ्रुकुटीके विक्षेपमात्र से ही वैरियोंके समूहको जीत लेते हैं उन राजाओंके भी हृदयमें शीघ्रही जिस कामदेवरूपी योधानें दृढ़तासे वाणको समारोपित कर दिया है ऐसे अत्यंत पराक्रमी भी उस कामदेवरूपी सुभटको समस्तप्रकारके शास्त्रोंकररहित तथा जिनकी आत्मा क्रोधादिकषायोंके नाशहोनेसे शांत होगई हैं ऐसे यतियोंने बातकीबात में जीतलिया है उन यतियोंके लिये नमस्कार है अर्थात् वे यतीश्वर मेरी रक्षा करें। भावार्थ:-- जिन राजाओंकी भों टेड़ीहोनेपर ही प्रवलभी शत्रुओंका समूह बातकीबातमें वश हो जाता है उन महापराक्रमी राजाओंके हृदयमें भी जिस कामदेवरूपी सुभटने अपना वाण समारोपित करदिया है अर्थात उसने ऐसे पराक्रमी राजाओं के ऊपर भी अपना प्रभाव जमा रक्खा है उसमहापराक्रमी भी कामदेवरूपी सुभटको विनाही हथियारके जिन शांतात्मामुनियोंने बात की बातमें जीत लिया आचार्य कहते हैं कि उनमुनियों केलिये मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करताहूं ॥ १ ॥ ब्रह्मचारी कोंन होसक्ता है इसबातको आचार्यवर दिखाते हैं । आत्मा ब्रह्मविविक्तबोघनिलयो यत्तत्र चर्यं परं स्वांगासंगविवर्जितैकमनसस्तद्ब्रह्मचर्यं मुनेः । एवं सत्यवलाः स्वमातृभगिनी पुत्रीसमाः प्रेक्षते वृद्धाद्या विजितेन्द्रियो यदि तदा स ब्रह्मचारी भवेत् For Private And Personal ॥३३३।।
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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