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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥३३२ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । बोधादस्ति न किञ्चित्कार्यं यद्द्द्दश्यते मलात्तन्मे । आकृष्टयंत्रसूत्राद्दारुनरः स्फुरति नटकानाम् ॥ ६० ॥ अर्थः--जो कुछ मेरे कार्य मोजूद है अर्थात् जो कुछ कार्य में कररहा हूं वह कर्मकी कृपासे कररहा हूं ज्ञानसे कुछ भी कार्य नहीं क्योंकि नटके खँचेहुवे यंत्रके सूत्र से ही पुतली नाचती है। भावार्थ:- जिसप्रकार पुतलीके नृत्य में नटद्वारा खींचा हुवा सूत्रही कारण है उसीप्रकार मेरे जो कार्य दृष्टि गोचर हो रहे हैं उनमें कर्मही कारण है अर्थात् कर्मकी कृपासे ही मुझमें कार्य दीख रहे है ज्ञानकी कृपासे नहीं ॥ ६०॥ निश्चय पंचाशत्पद्मनन्दिनं सूरिमाश्रिभिः कैश्चित् । शब्दैः स्वभक्तिसूचितवस्तुगुणैर्विरचितेयमिति ॥ ६१ ॥ अर्थः — श्रीपद्मनन्दी आचार्यको आश्रित तथा अपनी भक्तिसे प्रकटकिया है वस्तुका गुण जिन्होने ऐसे कैएक शब्दोंद्वारा इसनिश्चयपञ्चाशत्की रचनाकी गई है । भावार्थः —— इसश्लोकसे आचार्यने अपनी लघुताका वर्णन किया है कि इस अनित्यपञ्चाशत्नामक अधिकारकी रचना मैंने नहीं की है किन्तु मुझको आश्रित कईएक वचनोंने की है ॥ ६१ ॥ तृणं नृपश्रीः किमु वच्मि तस्यां न कार्यमाखण्डलसम्पदोऽपि । तत्वं परं चेतसि चेन्ममास्ति अशेषवाञ्छाविलयैकरूपं ॥ ६२ ॥ अर्थः- समस्त प्रकारकी इच्छाओंको दूरकरनेवाला यदि चैतन्यरूपी तत्व मेरे मनमें मोजूद है तो राज लक्ष्मी तो तृणके स्वमान है इसलिये मैं उसके विषय में तो क्या हूं इन्द्रकी संपदा भी मेरे लिये किसी कामकी नही॥६२॥ इसप्रकार श्रीपद्मनदि पंचविशतिकामें अनित्य पंचाशत नामक अधिकार समाप्त हुवा । For Private And Personal ।।३३२५
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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