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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥३३४॥ १९९००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००.......... पचनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थः--अपने शरीरमें जो आसक्तता उसकर रहित है एकमन जिसका अर्थात् जिसमुनकि मनमें शरीर विषयक कुछभी आसक्तता नहीं है ऐसे मुनीकी जो समस्तपदाथोंसे भिन्न तथा ज्ञानस्वरूप आत्मा है वही ब्रह्म है और उसब्रह्ममें जो चर्या है अर्थात् एकाग्रता है वही ब्रह्मचर्य है और ऐसे होनेपर जो वृद्ध आदिक स्त्रियां हैं उनको अपनी माता, वहिन, लड़कीके समान देखता है उससमय वह ब्रह्मचारी होता है । भावार्थः-समस्तपदार्थोंसे भिन्न और ज्ञानका स्थान अर्थात् ज्ञानस्वरूप जो आत्मा है वह तो ब्रह्म है और उसब्रझमें जो शरीरविषयकममताकररहितमुनीके मनकी एकाग्रता है वह अतरंग ब्रह्मचर्य है और बाह्यमें जो वृद्धस्त्रीको माताके समान समझता है तथा वरावरकी स्त्रीको बहिनके समान तथा छोटीस्त्रीको पुत्रीके समान समझता है उसपुरुषका वह बाह्यब्रह्मचर्य है और जो इन दोनोंप्रकारके ब्रह्मचर्यका पालन करनेवाला है वह (वशी) ब्रह्मचारी होता है ॥२॥ अब आचार्य इसबात को दिखाते हैं कि यदि शयन आदि अवस्थामें मुनिको अतीचारलगे तो वे प्रायश्चित करते हैं स्वप्ने स्यादतिचारिता यदि तदा तत्रापि शास्त्रोदितप्रायश्चितविधिं करोति रजनीभागानुमत्या मुनिः रागोद्रेकतया दुराशयतया सा गौरवात्कर्मणस्तस्य स्याद्यदि जाग्रतोपि हि पुनस्तस्यां महच्छोधनम् ॥ अर्थः-यदि किसीकारणसे स्वप्नमें मुनिको अतीचार लगजावे तो मुनि रात्रिका विभागकर शास्त्र में कहेहुवे प्रायाचित्तको करते हैं और यदि जाग्रतअवस्थामें रागके उद्रेकसे अथवा खोटेआशयसे वा कर्मकी गुरुतासे यदि मुनिको अतीचार लगजावे तो उस अतीचारितामें वे वड़ाभारी संशोधन करते हैं । भावार्थः-यदि मुनीश्वरोंको सोतेसमय रात्रिमें अतीचार लगै तो वे रात्रिका विभागकर प्रायश्चित 10000000000000000००००००००००००००००००००००००००००००607 Buaa For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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