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119 आज भी कोटा सम्प्रदाय, अमरसिंह जी का सम्प्रदाय, नानकराम जी का सम्प्रदाय, स्वामीदास जी का सम्प्रदाय और नाथूरामजी का सम्प्रदाय- सब इन्हीं महापुरुष की शिष्य सन्तति है।। (2) धर्मसिंह जी
सरस्वती के वरद पुत्र धर्मसिंह जी में विद्वत्ता के साथ चारित्र्य था। इन्होंने 27 शास्त्रों पर टब्बे (टिप्पणियाँ) लिखी। इनकी अगाध बुद्धि, विलक्षण प्रतिभा और दिव्यमूर्ति जिनशासन के लिये वरदान स्वरूप बनी। धर्म की यह तेजस्विनी मूति सं 1725 में 43 वर्ष की शुद्ध दीक्षा पालकर ओझल हो गई । जीवराजजी महाराज ने संयम से स्थानकवासी सम्प्रदाय की जो बाड़ी लगाई थी, उसका साहित्य से सिंचन धर्मसिंह जी महाराज ने किया। इनका प्रचार क्षेत्र सारा गुजरात और सौराष्ट्र था। (3) लवजी ऋषि
श्रीमाली वणिक परिवार में जन्में लवजी पर लक्ष्मी और सरस्वती दोनों की कृपा थी। सं 1692 में आपकी यति दीक्षा हुई और संवत् 1694 में शुद्ध दीक्षा। आज भी लवजी ऋषि से अनुप्राणित सम्प्रदाय बड़ी संख्या में है। लवजी ऋषि के अनन्तर सोमजी ऋषि हुए। इन्होंने एकता के लिये प्रयत्न किये, किन्तु सामूहिक भावना को न पनपा सके। (4) धर्मदासजी महाराज
आपका जन्म अहमदाबाद के पास सरखेज गाँव में 1701 चैत्र शुक्ल एकादशी को हुआ। धर्मदास जी महाराज ने अपनी दिव्यवाणी से कच्छ, काठियावाड़, खानदेश, बागर, सौराष्ट्र, पंजाब, मेवाड़, मालवा, हाडौती और ढुंढार आदि स्थानों को आलोकित किया। धर्मदास जी ने क्रांति की अपेक्षा प्रचार को महत्व दिया। तीनों महापुरुषों की विरासत स्थानकवासी समाज को मिली, जिसे इन्होंने इस अत्यंत व्यवस्थित तथा अनुशासित बनाए रखने का प्रयत्न किया। इनकी शिष्य परम्परा में 99 शिष्य हुए जिसमें 35 तो संस्कृत और प्राकृत के पण्डित थे।
__इन्होंने समस्त शिष्यों के समक्ष एकत्रित करने की योजना प्रस्तुत की किन्तु सं 1772 में चैत्र शुक्ल 13 को महावीर जयन्ती के दिन 22 शिष्यों के नाम से 22 सम्प्रदाय की स्थापना हुई। धर्मदास जी महाराज का स्वर्गवास 1769 में हुआ।
आज भी 22 सम्प्रदायों की निरन्तर और अविरल परम्परा पाई जाती है1. पूज्य श्री रघुनाथ जी महाराज के श्री मिश्रीमल जी महाराज। 2. पूज्य श्री जयमल जी म. के श्री हजारीमल जी महाराज। 3. पूज्य श्रीरत्नचंद जी म. के श्री हस्तीमल जी म. और अब आचार्य श्री हीराचंद जी
महाराज। 4. लिम्बड़ी सम्प्रदाय में श्री नानकचंदजी महाराज। 5. सत्यला में श्री केशु मुनि जी महाराज। 6. गौडल में मुनि श्री पुरुषोत्तम जी महाराज ।
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