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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gynam Mandir नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये उस्सग्गेण विहारो संथरमाणोण नवउ खेत्तेसु । तो सत्रुग्यादुवही न वि ले आव दगः ।। -०.९ ॥ तेषु एव उत्पादयेत् उपधि नप, क्षेत्र अष्टौ ऋतुबद्धाः वर्षा-- कालाश्चेत्यर्थ:। दुलर्भमि वत्थपाए ऊहिएतु वि नवलु गच्छेजा । एमेव विहारी वि हु खेत्ताणऽसई मुणेययो । २०११ ॥ पगत्थ उ गामाइसु जहियं संथरंति तहि अच्छे । सव्वेसि तहिं उग्गही साहारण होइ जद नगरे ॥ २४.७ ॥ जइ पुण बहिया हाणी तहिं वढि गुणाण तत्थ अच्छति। के पुण गुणाइ भणिया भण्णइ नाणाइया हुति ॥ २४७३ ।। कालाईए दोसा दब्यक्खओ होइ अच्छमाणाण । तम्हा उ न चितुजा अरित्तं दुविहकालाम्म ॥ ४७४ ।। मा होज चरणभेमो पुण्णाइयंमि संवसंताण । अइचिरसंवासेण सिणेहमाईहि दोसेहिं ॥ २४७९ ॥ इति कालातिक्रमवसनबिचारः ॥ अइहमदे से य तहा कारणियगयाण सिसिरकालम्मि । परिभुजंताण य का विवाद चरणे अणुवघामा ॥ २५९९ ॥ इति प्रावरणविचार: ॥ संभुणा विरु द्धा उवग्गहं कुणइ नाणचरणाण । संभुजणा असुद्धा चरित्तभेयं वियाणाहि ॥ २.०६ ॥ इति संभोगविचार: ॥ अहलंदियाग गच्छे अप्पडिबद्धाण जह जिणाणतु । नवरं कालविसेसो उडुवासे पणग चउमासो ।। २५.८ ॥ चूणिस्तु-नधरि काले छब्भागे गामो कीरइ । एगेगे भागे पंच दिवस भिक्ख हिंडंति तत्थेव वसंति । वासासु एगत्थ चाउम्मासो इत्यर्थः । For Private And Personal Use Only
SR No.020506
Book TitleNishesh Siddhant Vichar Paryay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherJainanand Pustakalay
Publication Year1973
Total Pages181
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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