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दृष्टि वस्तु का यथार्थ प्रतिपादन करती है । इसीलिए वह दृष्टि मिथ्या है, अप्रामाणिक है। नय के द्वारा होने वाला वस्तु का ज्ञान ही वास्तव में असन्दिग्ध एवं निर्भ्रान्त ज्ञान है; क्योंकि वह वस्तु को अनेक दृष्टि बिन्दुओं से छूने का प्रयत्न करता है, और अपने से अतिरिक्त दृष्टिकोण का प्रतिषेध नहीं करता । सन्देह और भ्रान्ति ज्ञान के दोष माने गये हैं । सदोष ज्ञान से यथार्थ प्रवृत्ति की आशा नहीं की जा सकती और यथार्थ प्रवृत्ति के अभाव में ध्येय प्राप्ति नहीं हो सकती । जैसे ध्येय प्राप्ति के लिए यथार्थ प्रवृत्ति अपेक्षित है; उसी प्रकार यथार्थ प्रवृत्ति के लिए असन्दिग्ध एवं अभ्रान्त ज्ञान अनिवार्य है । दूसरे शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि यथार्थ प्रवृत्ति तथा ध्येय-सिद्धि का मूलाधार यथार्थ ज्ञान ही है ।
भारत के सब दर्शनकारों ने पदार्थ-विज्ञान और आचार शास्त्र के साथ-साथ ज्ञान प्रक्रिया भी बतलायी है । पदार्थ - विज्ञान और आचार - शास्त्र की सत्यता ज्ञान प्रक्रिया की सत्यता पर आधारित है - यह एक निश्चित तथ्य है । इतर दार्शनिकों द्वारा प्रदर्शित ज्ञान -प्रक्रियाएँ एकान्त दृष्टि पर आश्रित हैं, एक ही नय पर अवलम्बित हैं और एकान्त होने के कारण ही वे मिथ्या हैं
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"एगंतं होइ मिच्छत्त ।"
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