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कथन.अथवा विचार निरपेक्ष स्थिति में सत्यात्मक नहीं हो सकता । सत्य होने के लिए उसे अपने से अन्य विचार-पक्ष की अपेक्षा रखनी ही पड़ती है । साधारण ज्ञान, वस्तु के कुछ धर्मों-पहलुओं तक ही सीमित रहता है। केवलज्ञान की स्थिति में ज्ञान के परिपूर्ण होने पर ही वस्तुओं के अनन्त धर्मों का पूर्ण ज्ञान होना सम्भव है। दूसरे शब्दों में, केवलज्ञान ही वस्तु-स्वरूप का समग्र ज्ञान करा सकता है। इस पूर्ण ज्ञान को ही जैन-दर्शन में 'प्रमाण' माना गया है। इसके अतिरिक्त, अन्य सभी प्रकार का ज्ञान अपूर्ण एवं सापेक्ष है। सापेक्ष स्थिति में ही वह सत्य हो सकता है, निरपेक्ष स्थिति में नहीं । हाथी को खंभे जैसा बतलाने वाला अन्धा व्यक्ति अपने दृष्टि-बिन्दु से सच्चा है; परन्तु हाथी को रस्से जेसा कहनेवाले दूसरे व्यक्ति की अपेक्षा से सच्चा नहीं हो सकता । हाथी का समग्र ज्ञान करने के लिए समूचे हाथी का ज्ञान कराने वाली सब दृष्टियों की अपेक्षा रहती है। वस्तु-तत्त्व के सम्बन्ध में यह अपूर्ण और सापेक्ष ज्ञान ही जैन-दर्शन में 'नय' कहलाता है। और इसी अपेक्षा-दृष्टि के कारण 'नयवाद' का दूसरा नाम 'अपेक्षावाद' भी है। ध्येय-प्राप्ति का आधार 'नय-ज्ञान' ___ 'नय' के द्वारा ही वस्तु-तत्त्व का यथार्थ ज्ञान हो सकता है । केवल, वस्तु के किसी एक ही धर्म के द्वारा वस्तु की जानकारी को वस्तु का समग्र ज्ञान समझने की आग्रहपूर्ण
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