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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यूनानीमतानुसारनाडीपरीक्षा अनेकवार देखी होगी यदि फिर उसकी रोगावस्थामें देखेगा तो उसको उसकी नाडीका ज्ञान यथार्थ होगा, अन्यथा ज्ञान होना अति दुस्तर है । नाडीदेखने वालेको वा दिखाने वालेको उचित है कि किसीवस्तुका हाथको सहारा न देवे, न कोई वस्तु पकड रख्खीहो, तथारोगीके हाथमें पट्टीआदि बंधनादिक न होवे, यद्यपि बहुतमे वैद्य पहुचे, कनपटी, गुदा, टकने आदि अनेक स्थानकी नाडी देखते है, परंतु बहुधा हाथकी देखनेका यह कारणहै कि अन्यनाडी सब थोडी थोडी प्रगटहै शेष हाड मांसमें प्रवेश होनेके कारण अस्त होरही है उसजगे उंगलीयोंको स्पर्श प्रतीत नहीं होसकता परंतु हाथकी नाडी विशदहै अतएव इसपर उंगली उत्तमरीतिलै धरी जाती है परंतु मुख्य कारण इसका यह है कि किसी स्त्रीकी नाडी देखनेकी आवश्यकता होवे तो वो अन्योन्य अङ्गोकी नाडी लज्जाके पस नहीं दिखा सकती. परंतु हाथके दिखानेमें किसिकोभी संकोच नहीं होता अतएव सर्वत्र हाथकी नाडी देखना प्रसिद्ध है ॥ अब कहतेहै कि यूनानी वैद्य नाडीकी गति दोप्रकारकी वर्णन करते है । प्रथम इम्विसात दूसरी इन्किबाज । ___इम्बिसात (बाह्यगति ) , इन्किवाज ( अभ्यंतरगति) इम्विसात उसगतिको कहते हैं जब नाडी इन्किवाज उसगतिको कहतेहै कि जब बाहर आनकर ऊंगलीयोंका स्पर्श नाडी ऊंगलियोंका स्पर्शकर भीतरको करती है। प्रवेश करतीहै। दोषः खिल्त इति प्रोक्तः स चतुर्धा निरूप्यते। सौदा सफरा तथा वल्गम् तुरीयं खून उच्यते ॥२१॥ यूनानीमें दोष शब्दको खिल्त कहतेहै वह चार प्रकारकाहै जैसे सौदा ( वात ) सफरा ( पित्त वल्गम् (कफ) और चौथा दोष खून (रुधिर) है परंतु अपने शास्त्रमें दृप्यहोनेसैं इसको दोप नहीं माना यह शारीरकमें हम लिख आएहै ॥ २१ ॥ प्रत्येकदोषमें दोदोगणहै यथा। तत्र सौदा धरातत्वं रूक्षं शीतं स्वभावतः। पित्तमग्नेः स्वरूपन्तु सफरा रूक्षउष्णकम् ॥२२॥ वल्गमवारिस्वरूपं स्यात्सकफः स्निग्धशीतलः । अत्रं वायुः खून इति स्त्रिग्धोष्णं तेषु तदरम् ॥२३॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020491
Book TitleNadi Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Dattaram Mathur
PublisherGangavishnu Krushnadas
Publication Year1867
Total Pages108
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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