SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यूनानीमतानुसारनाडीपरीक्षा (४७) अर्थ-उस रूहके साथ लगीहुई जो नाडी है वो दो है एक शुरियान दूसरी असद इनमें शुरियान नाडी हृत्पद्ममें लगरही है उस्से सर्वत्र स्फुरण होताहै ॥ ३ ॥ शिरोन्तर्गिसम्बद्धास्ताभिश्चेष्टादिकं भवेत् । श्रेष्ठो जीवनिवासोद्राज्ञो राज्यासनं यथा ॥४॥ अर्थ-और दूसरी असव नामक जो नाडी है, वह शिरोन्तरभाग अर्थात् म. स्तकके भीतर लगरहीहै, इन नाडीयोंकरके इसदेहकी चेष्टादि होतीहै । जैसे राजा राजसिंहासनपर स्थितहो शोभित होताहै । उसीप्रकार जीवका श्रेष्ठनिवास हृदय स्थान है ॥ ४ ॥ तद्भवाधमनी मुख्या मनुष्यमणीबन्धगा। परीक्षणीया भिषजाह्यङ्गुलीभिश्चतसृभिः॥५॥ अर्थ-उन हृद्गतनाडीयोंमें मनुष्यके पहुचेकी धमनी नाडी मुख्यहै । उसको वैद्य चार उंगली रखकर परीक्षा करे । अपने शास्त्रमें तीन उंगलीसें परीक्षा करना सिखाहै परंतु यूनानी वैद्य चार दोषोंको चार उंगलियोंसे देखना कहते है ॥ ५ ॥ यथैणगतिपर्यायस्तद्वदुत्नुत्य गच्छति । गिजाली गतिराख्याता पित्तकोपविकारतः॥६॥ अर्थ-जैसे मृगकाबच्चा उछलता कृदता चलता है इस प्रकार नाडीकी गतिको गिजाली कहतेहै । यह पित्त कोप विकारको सूचित करती है ॥ ६ ॥ तरङ्गनाममोजस्यात् मोजीगतिरितीरिता। निवेदयतिवर्मस्थं वायोरूष्माणमेव सा॥७॥ अर्थ-यूनानी जलकी लहरको मौज कहते है उस मौज सदृश नाडीकी गतिको मौजी गति कहते है यह देहस्थ पवनकी गरमीको जाहिर करती है ॥ ७ ॥ दूदस्यात्क्रिमिपर्यायो दूती तस्य गतिः स्मृता। श्लेष्माणसंचयं चामं प्रकटीकुरुते हि सा ॥८॥ अर्थ-दृद ( कानसलाई आदि ) कृमिका पर्याय है अतएव तद्विशिष्टा नाडीकी गतिको दृदी गति कहते है । यह कफके संचयको और आमको प्रकाशित करती है ॥ ८॥ उमलपिपीलिकामोर उमली तद्गतिः स्मृता। For Private and Personal Use Only
SR No.020491
Book TitleNadi Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Dattaram Mathur
PublisherGangavishnu Krushnadas
Publication Year1867
Total Pages108
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy