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नाडीदर्पणः। हिमवदिशदा नाडी ज्वरदाहेन तापिनाम् ।
त्रिदोषस्पर्शभजतां तदा मृत्युदिनत्रयात् ॥ ७९ ॥ __ अर्थ-सन्निपात ज्वर दाहसैं संतप्त रोगीकी नाडी यदि शीतल और निर्मल होय तो वह रोगी तीन दिनमें मरे ॥ ७५ ॥
गतिन्तु भ्रमरस्येव वहेदेकदिनेन तु । अर्थ-जिस प्राणीकी नाडी भ्रमरके सदृश गमन करे अर्थात् जैमें भौरा कुछ दूर उडकर चला जाताहै और फिर उसीजगे आय जाताहै इसप्रकार नाडी चलनेसैं उसकी एकदिनमें मृत्यु होय ॥
कन्दन स्पन्दते नित्यं पुनर्लगति नाङ्गलौ ॥७६॥
मरणे डमरूकारा भवेदेकदिने न तु । अर्थ-मरणमें नाडी डमरूके आकार होती है, वो १ दिनमें मरे ॥ ७६ ॥
दृश्यते चरणे नाडी करे नैवाधि दृश्यते।
मुखं विकसितं यस्य तं दुरात्परिवर्जयेत् ।। ७७ ॥ अर्थ-जिसके चरणमें नाडी प्रतीत होय और हाथमें न मालमहो, तथा जिसका मुख खुलगयाहो उसै वैद्य त्यागदेय ॥ ७७ ॥
वातपित्तकफाश्चापि त्रयो यस्यां समाश्रिताः।
कृच्छ्रसाध्यामसाध्यां वा प्राहुवैद्यविशारदाः॥७८॥ अर्थ-जिसकी नाडीमें वातपित्त और कफ ए तीनोंदोष होय उसरोगीको बुद्धिवान वैद्य कृच्छ्रसाध्य अथदा असाध्य कहतेहै ।। ७८ ॥
शीघ्रा नाडी मलोपेता शीलता वाथ दृश्यते। द्वितीयदिवसे मृत्यु डीविज्ञातृभाषितम् ॥ ७९ ॥ अर्थ-जिस रोगीकी नाडी बहुधा मलदूषित होकर शीघ्र चले, किंवा शीतल प्रतीतहो उस रोगीकी दूसरे दिन मृत्युहोय, इसप्रकार नाडीज्ञान पारंगत वैद्योंने कहाहै ॥ ७९ ॥
मुखे नाडी वहेत्तीवा कदाचिच्छीतला वहेत् । आयाति पिच्छलस्वेदः सप्तरात्रं न जीवति ॥८०॥
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