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आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा से यदि नाडी निश्चल हाय फिरभी प्रगट होय इस्से मृत्यु शंकाका भय नहीं है इस श्लोकमें “निर्गदा " जो पदहै सो असंगतहै । क्योंकि निर्गदा नाडीभी निश्चला होतीहै ॥ ६९ ॥
स्तोकं वातकफ जुष्टं पित्तं वहति दारुणम् ।
पित्तस्थानं विजानीयाद्रेषजं तस्य कारयेत् ॥ ७० ॥ अर्थ-किंचिन्मात्र वातकफयुक्त और पित्त जिसमें प्रबल होय तो उस रोगीका यत्न करना चाहिये, वो असाध्य नहीं है ॥ ७० ॥
स्वस्थानच्यवनं यावद्धमन्या नोपजायते ।
तावचिकित्सा सत्वेऽपि नासाध्यत्वमिति स्थितिः ॥७१॥ अर्थ-जबतक नाडी स्वस्थान कहिये अंगुष्ठमूलसैं च्युत न होय, तावत्कालतक चिकित्सा करे यह असाध्य नहीं है ॥ ७१ ॥
प्रसङ्गवशकालनिर्णय कहतेहै भूलता भुजगाकारा नाडी देहस्य संक्रमात् । विशीर्णा क्षीणतां याति मासान्ते मरणं भवेत् ॥७२॥ अर्थ-कभी नाडी केंचुऐके सदृश कृश और टेटो चले, कभी सर्पके समान पुष्ट बलयुक्त और तिरछी चले, तथा कभी अलक्ष और अतिकृशतापूर्वक गमनकरे एवं कभी देह सूजन आदिसें स्थूल होजावे और कभी कृशहो जाय तो वह रोगी दूसरे महिनमें मरे ॥ ७२ ॥
क्षणाद्गच्छति वेगेन शान्ततां लभते क्षणात् ।
सप्ताहान्मरणं तस्य यद्यङ्ग शोथवर्जितः ॥७३॥ अर्थ-कभी नाडी जल्दी चले कभी चलनसैं रहि जावे और देहमें शोथ होय नहीं, तो उस प्राणीकी सातदिनमें मृत्यु होय ॥ ७३ ॥
निरीक्षा दक्षिणे पादे तदा चैषा विशेषतः।
मुखे नाडी वहन्नित्यं ततस्तु दिनतुर्यकम् ॥ ७४॥ अर्थ-पुरुपके दहने पैर और स्त्रीके वामपैर में यदि नाडी विशेष संचारकरे तथा आदिमें नित्य नाडी चले तो वहर गी चारदिन जीवे । आदिशन्दमैं इस जगे तर्जनी ऊंगली जाननी ॥ ७ ॥ - १ तत्स्थाचिदस्य सत्पीति पाटान्तरम् ।
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