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आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा
(२३) न स्वल्पलोभेन मानवाः । रोगिणां सुप्रिया प्राणान्हरन्ति ज्ञानवर्जिताः॥४०॥
अर्थ-इस मंसा में अत्यंत आश्चर्य है देखो कोई दिनको रात्रि और कोई रात्रिको दिन कहताहै । इसप्रकार अपनी अपनी इच्छानुसार वकतेहै और ए मूर्ख वैद्य थोडेसें लोभके कारण रोगियोंके परमप्रिय प्राणोंको हरण करते है | कहो इनसे बढकर कौन पामरहै जो विना विचारे अनर्थ करते है भाई यह वैद्यविद्या खेल नहीं है ॥ ४० ॥
अत एवं मया चित्ते सर्वमानीय तत्त्वतः। कथ्यते नास्ति नास्तीह नाडीस्थानविचारणा॥ ४१ ॥ किन्तु नाडीगतिः श्रेष्ठा शास्त्रकारैः प्रकीर्तिता । न च तत्रहि सन्देहो लेश मात्रोऽपि विद्यते ॥ ४२ ॥ तत्प्रकारोप्ययं ज्ञेयः सावधानतया किल । यथा सर्पजलौकादिगतिर्वातस्य गद्यते ॥४३ ॥ न तत्र कुरुते कोऽपि पित्तश्लेष्मभवं भ्रमम् । कुलिङ्गकाकमण्डूकगतिः पित्तस्य कीर्त्यते ॥४४॥ न तत्र कोऽपि कुरुते वातश्लेष्मभवं भ्रमम् । कपोतानां मयूराणां हंसकुक्कुटयोरपि ॥४५॥ या गतिः सा च विज्ञेया कफस्यैव गतिनृभिः। न तत्र कोऽपि कुरुते वातपित्तभवं भ्रमम् ॥ ४६॥ अर्थ-इन ऊपरकहेहुए सर्वकारणोंको अपने चित्तमें भलेप्रकार विचारकर हम कहते है कि नाडीके जो आदि मध्य और अंत्य ये स्थान किसीने कहे हैं सो नहीं हैं नहीं हैं । तो क्याहै? इसलिये कहते है कि नाडीकी जो गति है वो सत्यहै क्योंकि इसमें सर्वग्रंथकर्ताओंकी संमतिहै और इसमें लेशमात्रभी संदेह नहीं है, उसप्रकारको तुम सावधानताकरके सुनो, जैसैं सर्प और जोककी गति वातकी है इसमें कोई भ्रम नहीं करे कि यह पित्तकी नाडीहै या कफकी उसीप्रकार कुलिंग काक और मंडूककी गति पित्तकी है इसमें वात तथा कफकी नाडीका कोई भ्रम नहीं करता, इसीप्रकार कपोत, मोर, हंस, और कुकुट इनकी जो गतिहै वह कफकी है इसमें कोई यह नहीं कहे कि ये गति कफकी नहीं है वातपित्तकी है, इसीसे हमारातो यही सिद्धांतहै कि नाडीके स्थान असत्य और गति सत्यहै ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ ४३ ॥४४॥ ४५ ॥ ४६॥
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