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१२२)
नाडीदर्पणः । वादस्य खण्डनं लोकरञ्जनम् ॥ ३३ ॥ वातमग्रे वदन्त्येके पित्तमग्रे च केचन । हास्यास्पदमिदं सर्व नतु सत्यं मनागपि ॥३४॥
अर्थ-अब हम शास्त्रसंमत तथा मनुष्योकी रंजना (प्रसन्नता ) को और मिथ्यारोपित वादका खंडनरूप अपने मतको कहतेहै । जैसे कोई तो वातकी, और कोई पित्त की नाडीको आगे बतलाताहै यह केवल उनके हास्यका स्थानहै किंतु किंचिन्मात्रभी सत्य नहीहै इसप्रकार माननेसैं बडाभारी अनर्थ होताहै जैसे आगे लिखतेहै ॥ ३४ ॥ सति पित्तभवे व्याधौ बुद्धचतिक्रमतो यदि । वातकोपवशादेवमादौ ज्ञात्वा धरागतिम् ॥ ३५ ॥ प्रदेद्वेषजं घुष्णं तद्दोपविनिवृत्तये । तदा नूनं भवेन्मृत्युः पित्तकोपेन भूयसा ॥३६॥ अर्थ-कदाचित् किसीरोगीके पित्तकी व्याधिहोवे और वैद्यबुद्धिभ्रमसें वातकोपको नाडी अग्रभागमें समझकर उस रोगीको दोष दूर करनेको उस उष्ण (शुंठ्यादि) औषध देय तो कहो एकतो पित्तदोषकी गरमी और दूसरे गरम ही दीनी औषध अब कहो वह रोगी पित्तकी गरमीके मारे मरेगा कि वचेगा? किंतु अवश्यही मरेगा । सति वातभवे व्याधौ बुद्ध्यतिक्रमतो यदि । नाडीगतिं पित्तवशादादौ ज्ञात्वा ततो भिषक् ॥ ३७ ॥ प्रददेनेपनं शीतं तदोषविनिवृत्तये । तदा नूनं भवेन्मृत्युतिकोपेन भूयसा ॥३८॥
अर्थ-इसीप्रकार रोगीके देहमें वातजन्य रोगहोय और वैद्यबुद्धिके भ्रमसैं पित्तकी नाडी जानकर यदि उसरोगीको पित्तनाशक शीतल उपचार करे तो कही अत्यंत शरद औषधसैं रोगी सरदीके मारे मरेगा या वचेगा? किंतु अवश्यही मरेगा ॥ ३७-३८ ॥
अत्याश्चर्यमिदं लोके वर्त्तते दृश्यतां यथा । वदन्त्येके दिनं - रात्रि केऽपि रात्रि दिनं तथा ॥३९॥ एवं स्वेच्छाभिलापे
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