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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा उक्तलोकका पुष्टिकर्त्ता दृष्टान्त । तृणं पुरःसरं कृत्वा यथा वातो वहेइली । शेषस्थं च तृणं गृह्य पृथिव्यां वऋगो यथा ॥ २८ ॥ एवं मध्यगतो वायुः कृत्वा पित्तं पुरस्सरम् । स्वानुगं कफमादाय नाड्यां वहति सर्वदा ॥ २९ ॥ ( २१ ) अर्थ - इस वाक्यको दृष्टान्त देकर पुष्ट करते है कि जैसे प्रबलवात अर्थात् आंधी. तिनकाओंको अगाडी करके और कुछ पिछाडीके तिनकाओं को लेकर आप बीचमें टेढ़ी होकर चलती है । इसीप्रकार मध्यरात वायु पित्तको अगाडीकर और अपने पिछाडी कफको करके बीचमें आप टेढी होकर चलती है ॥ २८ ॥ २९ ॥ अतएव च पित्तस्य ज्ञायते कुटिला गतिः । वक्रा प्रभञ्जनस्यापि प्रोक्ता मन्दा कफस्य च ॥ ३० ॥ पित्ताग्रेऽस्ति गतिः शीघ्रा तृणस्येति विश्यताम् । मन्दानुगस्य वक्रा वै मारुतो मध्यगस्य ह ॥ ३१ ॥ तथात्रैव च ज्ञातव्या गतिदपत्रिकोद्भवा । नान्यथा ज्ञायते स्नायुगतिरेतद्विनिश्चितम् ॥ ३२ ॥ अर्थ- इसींसें नाडीमें पित्तकी गति कुटिल है, और वातकी गति टेढी एवं कफकी मन्दगति प्रतीत होती है । पित्तकी शीघ्रगति सो आंधी में तृणके देखने तें प्रत्यक्ष होती है । और जैसें आंधी में पिछाडीके तृणकी मंदगति होती है उसीप्रकार नाडीमें पिछाडी कफकी मंदगति है । और जैसें आंधी के बीचमें पवनकी गति टेढी तिरछी होती है । उसीप्रकार इसनाडीके बीच में वातकी गति टेढी तिरछी प्रतीत होती है इस प्रकार ही नाडीकी गति प्रतीत होती है । अन्यप्रकारसैं नहीं ॥ ३० ॥ परंतु हमको शंका कि नाडीका और आंधीका क्या संबंध है, क्योंकि आंधी में आगे पीछे और बीचमें पवनही कहाती है, परंतु नाडीमे तो न्यारे न्यारे दोषहै, जैसें वात पित्त, तथा कफ, और पवनका एकही कर्म है परंतु इन तीन्यो दोषों के कर्म पृथक् पृथक् है इस कारण यह दृष्टान्तही असंभव है हमारे मनको हरण कर्ता नहीं है ॥ ३१॥३२ ॥ For Private and Personal Use Only ग्रंथकर्त्ता का मत इदानीं कथयिष्यामि स्वमतं शास्त्रसंमतम् । मिथ्यारोपित
SR No.020491
Book TitleNadi Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Dattaram Mathur
PublisherGangavishnu Krushnadas
Publication Year1867
Total Pages108
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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