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(१८)
नाडीदर्पणः। वेदन (तडफ) से और मर्दनकरना इन कारणों से वैद्य उन नाडियोंके जीवसंचारको निरूपण करे ॥ १५ ॥ ॥ १६ ॥
गुरुतोऽत्र प्रयत्नेन वैयेन शुभमिच्छता।
ज्येष्ठेनाङ्गुष्टमूलेन नाडीपुच्छं परीक्षयेत् ॥१७॥ अर्थ-यशेच्छु वैद्य यत्नपूर्वक गुरुसैं अर्थात् गुरुद्वारा अंगुठेकी जडमैं नाडीपुच्छकी परीक्षाकरे, तात्पर्यार्थ यहहै कि जो वैद्य अपने हितकी चाहना करे वो गुरुद्वारा नाडीपरीक्षा सीखे स्वयंही न देखनेलगे ज्येष्ठ कहनेसैं अंगूठेका बृहनिम्नभाग जानना ॥ १७ ॥
नाडी वायुप्रवाहेन शास्त्रं दृष्ट्वा च बुद्धिमान् ।
गुरूपदेशं संस्मृत्य परीक्षेत मुहुर्मुहुः ॥१८॥ अर्थ-बुद्धिवान् वैद्य पवनके संचारकरके और शास्त्रके अनुसार तथा गुरूके उपदेशको स्मरणकर बारबार नाडीकी परीक्षा करे ॥ १८ ॥
वारत्रयं परीक्षेत धृत्वा धृत्वा विमुच्य च ।
विमृश्य बहुधा बुद्धया रोगव्यक्तिं तु निर्दिशेत् ॥१९॥ अर्थ-बारबार नाडीपर उँगलिरखे और हटायले अर्थात् नाडीको कुछ दवायके ढीली छोडदेवे इसप्रकार करनेसे नाडीकी सबलता और निर्बलता चौडाव लंबाव तथा शीघ्रता और मंदताका ज्ञान होताहै । इस प्रकार तीनवार परीक्षाकर संपूर्ण नाडीकी व्यवस्था अपने मनमें विचारकर फिर रोगव्यक्ति कहे अर्थात् इसरोगीके देहमें अमुक रोगहै ऐसै विना विचारे न कहे ॥ १९ ॥
अङ्गलित्रितयै स्पृष्ट्वा क्रमाद्दोपत्रयोद्भवैः।
मन्दां मध्यगतां तीक्ष्णां त्रिभिर्दोषैस्तु लक्षयेत् ॥२०॥ अर्थ-नाडीको तीनउँगलियोंके स्पर्शसे तीनोदोषोंकरकै मन्द, मध्य, और तीक्ष्ण गति जाननी, अर्थात् प्रथम उँगलीमें मध्यस्पर्शहोनेमैं वातकी, और बीचकी उँगलीमें तीक्ष्णस्पर्श होनेसे पित्तकी, और अंतकी उँगली ( अनामिका ) में मंदस्पर्श होनेसैं कफकी नाडी जाननी ॥ २० ॥
रोगरहितमनुष्यकीनाडी। भूलता भुजगप्राया स्वच्छा स्वास्थ्यमयी शिरा। सुखितस्य स्थिरा ज्ञेया तथा बलवती मता ॥२१॥
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