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आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा
( १७ )
तात्पर्य यह है कि जैसे जोहरी रत्नपरीक्षामें अभ्यास करनेसें रत्नकी परीक्षा करता है उसीप्रकार इस नाडीका देखनाभी रत्नपरीक्षाके समान है, अतएव इसके देखने में वैद्य अभ्यासकरे ॥ १२ ॥
करस्याङ्गुष्टमूले या धमनी जीवसाक्षिणी ।
तच्चेष्टया सुखं दुःखं ज्ञेयं कायस्य पण्डितैः ॥ १३ ॥ प्रभञ्जनगतिर्यत्र इति नाड्यन्तरनिरासः सततम् इति
सुस्थदशायामपि परीक्षणीया ।
अर्थ-तहां नाडीदेखनेका स्थान कहते है, जैसेकि हाथ के अंगूठेकी जडमें जो जीवसाक्षिणी धमनी नाडी है उसकी चेष्टा करके इसप्राणीके देहका सुख दुःख वैद्यजन जाने, ८ के श्लोकमें “प्रभञ्जनगतिर्यत्र " इस लिखने से यह सूचनाकरी कि अंगूठेके संनिकट नाडीको देखनी अन्य नाडियोंको न देखना तथा " सततं " इस पदके धरनेंसें यह प्रयोजन है कि वैद्य रोगावस्थाही में नाडी न देखे किंतु स्वस्थ दशामेंभी नाChat परीक्षाकरे. कारण कि जिसकी नाडी स्वस्थावस्था में देखी है यदि उसके रोग प्रग टहोनेवाला होवेतो उस रोगका निश्चय नाडीद्वारा बहुत सुगमतास होसकता है इसी लिखाहै यथा ॥ १३ ॥
भाविरोगावबोधाय सुस्थनाडीपरीक्षणम् ॥ १४ ॥
अर्थ - अर्थात् होनहार रोगज्ञानके अर्थ वैद्यको स्वस्थ ( रोगरहित) मनुष्य की नाडीपरीक्षा करनी चाहिये ॥ १४ ॥
स्पर्शनादिभिरभ्यासान्नाडीज्ञो जायते भिषक् । तस्मात्परामृशेन्नाडीं सुस्थानामपि देहिनाम् ॥ १५ ॥ स्पर्शनात्पीडनाद्घाताद्वेदनान्मर्दनादपि । तासु जीवस्य सञ्चारं प्रयत्नेन निरूपयेत् ॥ १६ ॥
अर्थ- ग्रन्थान्तरोंमें लिखा है कि स्पर्शनादिके अभ्यास अर्थात् प्रत्येककी नाडी देखनेसे यह वैद्य नाडीका जाता होता है अतएव यह वैद्य स्वस्थ मनुष्योंकीभी नाडी देखाकरे उस नाडीके स्पर्शसें, पीडन ( दावने ) सैं, घातसैं ( ऊंगलियोंमें लगनेसें
१ यद्यस्ति नाडी सर्वत्र शरीरे धातुवाहिनी । तथाप्यङ्गुष्ठमूलस्था करस्था सर्वशोभना ||१|| विलसति मणिरन्ध्रे ग्रन्थिरगुरष्टमूले तृदधरणामिताभ रुयङ्गुलीभिर्निपीड्य । स्फुरणमसकृदेषा नाडिकायाः परीक्षा पद्मनुबुटिकाधोऽङ्गुष्ठमूले तथैव ॥ २ ॥
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