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नाडीदर्पणः । अंगही चेष्टावाले होते है, अतएव ऐसे मनुप्योंके वामअंगकी जबतक नाडी नहीं देखीजाय तबतक यथार्थ ज्ञान नहीं होता । दूसरे दोषोंके भेदसैं नाडीके वाम दक्षिण में भेद होजाताहै अथवा यह परंपराहै इसीसे लोकविरुद्धभयसै देखते है ॥ ८ ॥
___ दूसरा प्रकार । ईषद्विनामितकरं वितताङ्गुलीयं बाहुप्रसाररहितं परिपीडनेन। ईषद्विनम्रकृतकूपरवामभागहस्ते प्रसारितसदङ्गुलिसन्धिके च ॥९॥ अङ्गुष्ठमूलपरिपश्चिमभागमध्ये
नाडी प्रभञ्जनगति प्रथमं परीक्षेत् ॥१०॥ अर्थ-वैद्य रोगीके हाथको किंचिन्मात्र नवायकर और हाथकी उंगलीयोंको एकत्र कर तथा भुजाको बहुत लंबी न होनेदे और हाथ पट्टी आदिसैं बंधा न हो क्योंकी पट्टिआदिके बंधनसै नाडीकीगति रुकजाताहै फिर रोगीके कूपर (कोहनीके वामभाग ) को पकड अंगुली और उनकी संधिसहित हाथको पसार रोगीके अंगूठेके पिछलेभागमें प्रथम वातकी परीक्षा करे, कारण यहहै कि आदिमें वातका स्थानहै अतएव प्रथम वातकी परीक्षा करनी चाहिये ॥ ९ ॥ १० ॥
प्रदर्शयेदोषनिजस्वरूपं व्यस्तं समस्तं युगलीकृतं च मूकस्य मुग्धस्य विमोहितस्य
दीपप्रभावा इव जीवनाडी॥११॥ अर्थ-यह जीवनाडी गूंगेके मृटके और मोहितपुरुषके पृथक् पृथक और मिले तथा छैद्वज दोषोंका जो निजस्वरूप है उसको दिखाती है, जैसे दीपक अपने प्रकाशमैं घरमें स्थित पदार्थीको दिखताहै ॥ ११ ॥ स्त्रीणां भिषग्वामहस्ते वामे पादे च यत्नतः। शास्त्रेण संप्रदायेन तथा स्वानुभवेन च॥परीक्षेद्रत्नपच्चासावभ्यासादेव जायते॥१२॥
अर्थ-वैद्य स्त्रियोंके धामहाथ और वापपरमें शास्त्रकी संप्रदायसें और अपने अनुभवद्वारा रत्नके समान नाडी परीक्षाकरे, यह परीक्षा केवल अभ्याससाध्यहै
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