SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाडीदर्पणः । अंगही चेष्टावाले होते है, अतएव ऐसे मनुप्योंके वामअंगकी जबतक नाडी नहीं देखीजाय तबतक यथार्थ ज्ञान नहीं होता । दूसरे दोषोंके भेदसैं नाडीके वाम दक्षिण में भेद होजाताहै अथवा यह परंपराहै इसीसे लोकविरुद्धभयसै देखते है ॥ ८ ॥ ___ दूसरा प्रकार । ईषद्विनामितकरं वितताङ्गुलीयं बाहुप्रसाररहितं परिपीडनेन। ईषद्विनम्रकृतकूपरवामभागहस्ते प्रसारितसदङ्गुलिसन्धिके च ॥९॥ अङ्गुष्ठमूलपरिपश्चिमभागमध्ये नाडी प्रभञ्जनगति प्रथमं परीक्षेत् ॥१०॥ अर्थ-वैद्य रोगीके हाथको किंचिन्मात्र नवायकर और हाथकी उंगलीयोंको एकत्र कर तथा भुजाको बहुत लंबी न होनेदे और हाथ पट्टी आदिसैं बंधा न हो क्योंकी पट्टिआदिके बंधनसै नाडीकीगति रुकजाताहै फिर रोगीके कूपर (कोहनीके वामभाग ) को पकड अंगुली और उनकी संधिसहित हाथको पसार रोगीके अंगूठेके पिछलेभागमें प्रथम वातकी परीक्षा करे, कारण यहहै कि आदिमें वातका स्थानहै अतएव प्रथम वातकी परीक्षा करनी चाहिये ॥ ९ ॥ १० ॥ प्रदर्शयेदोषनिजस्वरूपं व्यस्तं समस्तं युगलीकृतं च मूकस्य मुग्धस्य विमोहितस्य दीपप्रभावा इव जीवनाडी॥११॥ अर्थ-यह जीवनाडी गूंगेके मृटके और मोहितपुरुषके पृथक् पृथक और मिले तथा छैद्वज दोषोंका जो निजस्वरूप है उसको दिखाती है, जैसे दीपक अपने प्रकाशमैं घरमें स्थित पदार्थीको दिखताहै ॥ ११ ॥ स्त्रीणां भिषग्वामहस्ते वामे पादे च यत्नतः। शास्त्रेण संप्रदायेन तथा स्वानुभवेन च॥परीक्षेद्रत्नपच्चासावभ्यासादेव जायते॥१२॥ अर्थ-वैद्य स्त्रियोंके धामहाथ और वापपरमें शास्त्रकी संप्रदायसें और अपने अनुभवद्वारा रत्नके समान नाडी परीक्षाकरे, यह परीक्षा केवल अभ्याससाध्यहै For Private and Personal Use Only
SR No.020491
Book TitleNadi Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Dattaram Mathur
PublisherGangavishnu Krushnadas
Publication Year1867
Total Pages108
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy