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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६६ ) परिभाषा न की जाय । इस स्थिति में विद्यार्थी सहसा यह परिणाम निकाल सकता है कि सुषुप्तावस्था में अहंकार का क्रियमान होना ही आत्मा का सूचक है । इस मिथ्या भावना को दूर करने के लिए इस मन्त्र में और अधिक व्याख्या तथा युक्तियों का समावेश किया गया है। यहाँ 'जाग्रत' अवस्था के स्थूल संसार की 'सुषुप्त' अवस्था के 'रिक्त' जगत से तुलना की गयी है । जब हम सुषुप्तावस्था को इतना अधिक नहीं जान सकते तो उपनिषदों द्वारा वर्णित सुषुप्तावस्था के रहस्य को समझ सकना एक विफल प्रयास ही होगा। इस मंत्र में टीकाकार सुषुप्तावस्था के अहंकार (प्राज्ञ) की व्याख्या कर रहे हैं । इनके विचार से इस अवस्था में सत्य अथवा असत्य का पता नहीं चलता और युक्त-अयुक्त तथा प्रात्मा-अनात्मा का रत्ती भर ज्ञान नहीं रहता। इस को हम पूर्णावस्था नहीं कह सकते और न ही यह विशुद्ध चेतना की स्थिति है । सुषुप्तावस्था में हमें "साक्षात् अविद्या" का ही ज्ञान होता है । अन्धकार को देखना ज्योति के दर्शन करने से सर्वथा भिन्न है। 'तुरीय' शाश्वत एवं सनातन ज्ञान का अधिष्ठान है । 'तुरीय' तथा 'प्राज्ञ' में वही भेद है जो 'ज्योति' और 'अन्धकार' में । सुषुप्तावस्था में हमें यह ज्ञान होता है कि "हम कुछ भी नहीं जानते ।" इसके विपरीत तुरीयावस्था में हमें निरन्तर यह ज्ञान रहता है कि "हम सब कुछ जानते हैं।" शुद्ध ज्ञान होने के कारण 'तुरीय' स्वयमेव ज्ञान-स्वरूप है । ___ ज्योति को प्रज्वलित करने के लिए किसी और ज्योति की आवश्यकता नहीं होती । इस लिए ज्योति-स्वरूप 'ज्ञान' (आत्मा) को जानने के लिए कोई अन्य ज्ञान आवश्यक नहीं है । 'आत्मा' के अनुभव के लिए किसी दूसरे अनुभव-कर्ता से सहायता नहीं मिल सकती । प्रात्मा (तुरीय) 'ज्ञान' है; इसलिए टीकाकार ने स्पष्टतः कहा है कि 'तुरीय' सदा सर्व-द्रष्टा है। द्वैतस्याग्रहणं तुल्यमुभयो प्राज्ञतुर्ययोः । बीजनिद्रायुतः प्राज्ञः सा च तुर्ये न विद्यते ॥१३॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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