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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७० ) 'सुषुप्तावस्था' और 'तुरीय' में समान रूप से 'द्वैत' को अनुभव नहीं किया जा सकता किन्तु गहरी निद्रा लेने वाला कारण द्वारा प्रभावित होता है जब कि यह कारण (अविद्या) तुरीयावस्था में विद्यमान नहीं होता। पिछले दो मंत्रों पर गहरा विचार करने के बाद एक शंका उत्पन्न हो सकती है जिसका यहाँ समाधान किया जाता है । वह संदेह यह है कि यदि सुषप्तावस्था तथा तुरीयावस्था में समान रूप से 'द्वैत' भाव नहीं रहता तो 'तुरीय' 'सुषुप्त' से किस बात में भिन्न हुई ? संक्षेप में प्रश्न-कर्ता यहाँ यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहा है कि इस दिशा में इन दोनों अवस्थाओं में समानता होने के कारण 'तुरीय' भी 'सुषुप्त' का रूप हुई। संसार के नास्तिक, विशेषतया साम्यवादी (कम्यूनिस्ट), अपने अस्पष्ट एवं भ्रान्तिपूर्ण उद्देश्य की पूत्ति के कारण धर्म को रीता तथा निरर्थक सिद्ध करना चाहते हैं। वे महान शास्त्रों का गहरा अध्ययन न कर के अपना ही परिणाम निकाल बैठते हैं। मुझे अनेक साम्यवादी व्यक्तियों से बात करने का अवसर मिला है । उनकी धारणा यह है कि जब सब बातों को कहा और समझा जा सकता है तो वेदान्ती वर्तमान युग वालों को मुक्ति का मार्ग इतने वैज्ञानिक एवं विज्ञानमय ढंग से क्यों दिखाते हैं । उनके इस तर्क की विफलता उन के रिक्त ज्ञान का प्रतिबिम्ब है । वेद-शास्त्रों के गढ़ रहस्य को समझने के लिए केवल बुद्धि सहायक नहीं हो सकती, चाहे अध्ययन करने वाला एक प्रकाण्ड विद्वान क्यों न हो । सुष्ठुतया मनन एवं अनुकरण द्वारा ही हम वेदान्त में निहित रहस्य को समझने में समर्थ हो सकते हैं। यहाँ 'सुषुप्त' तथा 'तुरीय' के मुख्य भेद को स्पटष्तया समझाया जा रहा है। एक सषप्त व्यक्ति को परमात्म-तत्त्व के वास्तविक स्वरूप का लेशमात्र ज्ञान नहीं होता और यही अशान अनेकता की पहचान करने का कारण होता है । 'तुरीय' अवस्था में इस सनातन तत्त्व का अनुभव होता रहता है जिसका सुषुप्तावस्था में पूर्ण प्रभाव रहता है । अतः इन दोनों अवस्थाओं में समानता नहीं होती। For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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