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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के एक कण को भी गीला नहीं कर सकती । इस प्रकार 'कारण' और 'कार्य', जिनका क्रिया-क्षेत्र 'जाग्रत', 'स्वप्न' और 'सुषुप्त' अवस्था तक सीमित रहता है, इन तीनों से परे रहने वाली वास्तविक (तुरीय) अवस्था में कभी प्रवेश नहीं कर सकते । यह बात कहने से टीकाकार का अभिप्राय है कि जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्तावस्थाएँ केवलमात्र 'तुरीय' (प्रात्मा) पर आरोप हैं । नाऽऽत्मानं न परांश्चैव न सत्यं नापि अनृतम् । प्राज्ञः किंचन संवेत्ति तुर्य तत्सर्वदृक्सदा ॥१२॥ . 'प्राज्ञ' सत्य प्र वा असत्य के विषय में कुछ नहीं जानता और न ही आत्मा या अनात्मा के सम्बन्ध में उसे कोई ज्ञान है । 'प्राज्ञ' इन सबसे अनभिज्ञ है । 'तुरीय' सब से परिचित है और यह सर्वज्ञ एवं सर्व-द्रष्टा है। ऊपर जिस अज्ञान (मविद्या) की व्याख्या की गयी है वह वास्तव में प्रात्मा के वास्तविक स्वरूप को न जानना है। इससे माया-पूर्ण पदार्थमय संसार की उत्पत्ति होती है । इस प्रभाव (कार्य) को अज्ञान कहा जा सकता है जो हमारे जीवन में भ्रान्ति को जन्म देता है । 'जाग्रत' तथा 'स्वप्न' अवस्थाओं को अनुभव करने वाले को सदा अज्ञान (अविद्या) तथा भ्रान्ति का अनुभव होता रहता है । सुषुप्तावस्था में यह (प्रात्मा) केवल 'अविद्या' की स्थिति में रहती है । गत कारिका में इस बात को समझाया जा चुका है। जब हम यह कहते हैं कि तुरीयावस्था में 'अविद्या' तथा 'भ्रान्ति' दोनों विद्यमान नहीं होते तो यह शंका उठ सकती है कि तुरीय (प्रात्मा) और सुषुप्तावस्था (प्राज्ञ) में क्या भेद है । ___ नकारात्मक भाषा के प्रयोग से सदा यह भय बना रहता है कि छात्र 'परम-तत्त्व' को वह सत्ता मानता रहे जिसकी इस (नकारात्मक) भाषा द्वारा For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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