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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १४५ ) · सुख स्वरूप है । फिर भी इस (आत्मा) के वास्तविक गुण को भूल जाने और इसके विविध गुणों का आरोप करने से हम अज्ञानवश नश्वरता के क्लेश सहन करते रहते हैं । नाशमान् एवं परिवर्तन-शील संसार वाला जीवन हमारा स्वरूप नहीं है । इस विविधता पूर्ण संसार में हमारे जीवन के अनेक संघर्ष एवं क्लेश वस्तुत: वे संघर्ष हैं जिनके द्वारा हम प्रपने यथार्थ स्वरूप की फिर से खोज करते हैं । अपने स्वरूप से पृथक् होकर हम निर्वासित व्यक्ति की भाँति अपना जीवन बिता रहे हैं। प्रकृति का यह नियम अटल है कि कोई वस्तु अपने स्वभाव से अलग नहीं रह सकती; इसलिए 'आत्मा' को चाहिए कि वह ' अहंकार' को अपने स्वरूप को जानने के लिए मजबूर करे । इस दुविधा में फँस कर हमारा जीवात्मा जीवन के इन विस्फोटकों द्वारा कुचल दिया जाता है । जीवन की सभी यातनाएँ हमारे मिथ्याभिमान के व्यक्तित्व में प्रकारण कल्पनाओं के द्वारा ही होती रहती हैं । कारणं यस्य वै कार्यं कारणं तस्य जायते । जायमानं कथमजं भिन्नं नित्यं कथं च तत् ॥११॥ वाद-विवाद करने वाले जो व्यक्ति कारण को ही कार्य मानते हैं वे कहते हैं कि 'कार्य' की भांति 'कारण' की भी उत्पत्ति होती है । कारण के लिए 'प्रजात' रहना किस प्रकार संभव हो सकता है ? साथ ही कारण किस तरह 'सनातन' कहा जा सकता है यदि उसमें बार-बार परिवर्तन आता रहे ? श्री गौड़पाद अब 'साँख्य' विचार-धारा की आलोचना कर रह हैं इस सिद्धान्त के अनुसार 'कार्य' की सत्ता 'कारण' में पहले से बनी रहती है । यदि 'कार्य' का अस्तित्व 'कारण' में मान लिया जाए तो हम यह कहगे कि 'कारण' में परिवर्तन होने के परिणाम स्वरूप 'कार्य' की उत्पत्ति होती हैं । परिवर्तन का अर्थ नश्वरता है । इस कारण श्री गौड़पाद यह प्रश्न करते हैं कि 'साँख्यिकी' अपनी इस धारणा को किस प्रकार सिद्ध करते हैं कि 'कारण' For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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