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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २४६ ) पूर्ण एवं नित्य है और साथ ही यह भी मानते हैं कि 'कार्य' का जन्म 'कारण' से होता है । ये दोनों बातें परस्पर-विरोध रखती हैं। ____ वास्तव में श्री गौड़पाद इस मंत्र में यह बता रहे हैं कि निपक्ष एवं विकसित बुद्धि द्वारा यह न्याय-सिद्धान्त मान्य नहीं हो सकता । हम यह नहीं मान सकते कि कारण कार्य के समान है और न ही हमें यह बात स्वीकार है कि 'कार्य' 'कारण' से समानता रखता है । इन दोनों अवस्थाओं में जिस क्षण हम कारण-कार्य को सम्बद्ध मानेंगे उसी समय हमें कारण को ससीम तथा नाशमान स्वीकार करना पडेगा। हम भले ही यह कहें कि संसार ही नारायण है या नारायण ही संसार है, इस से हमारा यह अभिप्राय नहीं कि नारायण से संसार की उत्पत्ति हुई है। इस बात को मानना तो भगवान को सीमित एवं नश्वर समझना है। कारणाद्यद्यनन्यत्वमतः कार्यमजं यदि । जायमानाद्धि वै कार्याकारणं ते कथं ध्रुवम् ॥१२॥ जैसा आप कहते हैं, यदि कार्य और कारण एक ही हैं, तो कार्य को अवश्य मेव सनातन तथा जन्म-रहित होना चाहिए । कार्य किस प्रकार नित्य और सनातन हो सकता है जब इसका कारण, जो इसके अनुरूप है, स्वयं अनित्य है ? ___ हम किसी प्रकार इस युक्ति को मान नहीं सकते कि इस सीमित एवं नाशमान् संसार की उत्पत्ति अनादि तथा अनन्त परम-तत्व से हुई है । क्या बबूल के पेड़ से ग्राम प्राप्त हो सकते हैं ? क्या कभी किसी जननी ने पत्थर की मूर्ति को जन्म दिया है ? ऐसे ही भगवान् से संसार की उत्पत्ति नहीं हो सकती अर्थात् 'चेतन' से 'जड़' की प्राप्ति नहीं हो सकती । अविनाशी से विनाशमान का उद्भव नहीं हो सकता । यदि हम इस बात को मान लें तो जड़ संसार के उद्गम (नित्य-कारण परमात्मा) को हमें जरा-मरण युक्त मानना पड़ेगा। अब द्वैतवादियों के द्वारा केवल एक हो प्रमाण दिया जा सकता है जो तर्क के आधार पर हास्यास्पद होगा । वह यह है कि सर्वशक्तिमान परमात्मा For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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