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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१४) का त्याग करते प्रतीत होते हैं। __ सभी पृथक् रहने वाले जीवात्मा स्वभाव से 'प्रात्मा' का स्वरूप हैं और कुछ नहीं; फिर भी हम अपने आप को नश्वर मानते रहते हैं। हम सदा यह अनुभव करते रहते हैं कि हमारा अस्तित्व सत्य-सनातन 'आत्मा' के विपरीत है यद्यपि हम वास्तव में परमात्म-तत्त्व से भिन्न नहीं हैं। इस मर्त्य-भाव को 'जरा-मरण' द्वारा समझाया गया है। शरीर में जन्म-मृत्यु पर्यन्त पाँच प्रकार के विकार होते हैं--जन्म, वृद्धि, व्याधि, जरा और मृत्यु । यहाँ पर केवल 'जरा-मरण' का प्रयोग किया गया है किन्तु इनके साथ शेष तीन विकारों की भी गणना की जानी चाहिए । अज्ञान, मिथ्याभिमान और झूठे सम्बन्ध रखने के कारण हम विविध पदार्थों के प्रकट होने और बढ़ते रहने के स्वप्न देखते रहते हैं। इनके साथ, व्याधि जरा और मरण से पीड़ित हो कर हम जीवन की यातनाओं को सहन करते रहते हैं। यह सब हमारे मन की प्रवृत्तियों तथा इन विचारों से लगाव होने के कारण घटित होता है । यदि हम अपनी बुद्धि से तनिक भी काम लें तो हमें पूरी तौर पर पता चल जायेगा कि ये सब विकार हमारे शरीर, मन और बुद्धि से सम्बन्ध रखते हैं न कि शुद्ध -चेतन प्रात्मा से । शरीर का जन्म होता है; मन एवं बुद्धि का विकास होता है; दुःख एवं यातनाओं का सम्बन्ध मन से है; 'जरा' (बुढ़ापे) द्वारा हमारी इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं और इसका हमारे शरीर पर प्रभाव पड़ता है; मृत्यु द्वारा हमारा स्थूल शरीर सूक्ष्म शरीर से अलग हो जाता है । इस तरह हम देखते हैं कि इन विकारों में से किसी एक का प्रात्मा से सम्बन्ध नहीं है । प्रात्मा तो इन से अछूता रहता है । अपने वास्तविक स्वभाव को भुला देने से हम 'आत्मा' को ढकने वाले आवरणों से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं कि इन पाँच अवस्थानों को हम 'प्रात्मा' में देखने लगते हैं । वास्तव म 'प्रात्मा' परिपूर्ण, अविकारी तथा For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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