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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १८४ ) जिनका मन इतना विकसित नहीं हो पाया है । इस विचार को अपने सम्मुख रखते हुए वे धीरे-धीरे उच्च स्तर पर पहुँच जाते हैं जहां से उन्हें उपासना द्वारा सनातन-तत्त्व का अनुभव हो जाता है । शास्त्र द्वारा इस अभ्यास की व्याख्या किया जाना कि परम-तत्त्व से पदार्थमय संसार की उत्पत्ति हुई निम्नश्रेणी के साधक पर विशेष अनग्रह है क्योंकि इस तरह वह प्रारम्भिक अवस्था से ऊँचा उठ सकता है । इस साधन को अपनाने के लिए हम माता 'श्रुति' को दोषी नहीं ठहरा सकते । वर्षा वाले दिन मेरे पास बैठा हुअा मेरा छोटा भाई यह जानना चाहता है कि वर्षा कैसे होती है । उस समय मैं उसे गर्मी से जल के वाष्पीकरण तथा ठंड के कारण वाष्प के जल में रूपान्तरित होने के नियमों को समझाने नहीं बढुंगा । यदि मेरे मन में उस की उत्सुकता को दूर करने की भावना है तो मैं उसके मानसिक स्तर तक नीचे पा कर उसे सब कुछ समझाऊँगा । मैं इस तरह कहँगा- "इन्द्र का श्वेत हाथी रामद से जल पीकर बादलों के पीछे छिप जाता है और वहाँ से उस पानी को नीचे फेंकता रहता है जिससे तुम जैसे बच्चे पानी में काग़ज़ की नावें चला सकें।" इस कल्पित भाव को बताने का यह अर्थ नहीं है कि मैं अपने भाई से जान-बूझ कर झूठी बात कह रहा हूँ । यदि मैं उपरोक्त व्याख्या देता हूँ तो उस विशेष प्रेम तथा अनुग्रह के कारण जो मेरे हृदय में उसके लिए भरा हुआ है । उसके सीमित मानसिक विकास को ध्यान में रखते हुए मैं ऐसी कथा बना कर उसे सुनाता हूँ जिसके द्वारा उस की उत्सुकता दूर हो सके । जब वह बड़ा होगा तो वह (वर्षा से सम्बन्धित) वास्तविक तथ्य को स्वयं समझ जायेगा। ऐसे ही 'माता-ति' की भावना है कि हर साधक अपने भीतर आत्मतत्त्व को अनुभव करे । इससे तभी साक्षात्कार किया जा सकता है जब उसे यह ज्ञान हो जाए कि संसार का नानात्व मिथ्या है । इस मर्म को जानने के लिए उस (साधक) को अपने मन एवं बुद्धि के उपकरण उपयोग में लाने पड़ते हैं। यदि हम प्रारम्भ में ही इस मिथ्यात्व को उसे समझाने का यत्न करेंगे तो हमारे सभी प्रयास विफल होंगे क्योंकि अपरिपक्व बुद्धि वाला वह व्यक्ति इस सूक्ष्मतर विचार को सुगमता से नहीं समझ सकेगा । इस कारण 'कारिका' में कहा गया है कि सृष्टि के सिद्धान्त का प्रतिपादन हमारे अविकसित मन For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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