SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १८३ ) आश्रमास्त्रिविधा हीनमध्योत्कृष्ट दृष्टयः । उपासनोऽपदिष्टेयं तदर्थमनुकम्पया ॥१६॥ विविध बौद्धिक स्तरों के आधार पर जीवन को तीन आश्रमों में विभक्त किया जा सकता है जो हीन, मध्य तथा उत्तम हैं । दया तथा महती कृपा से शास्त्रों ने अविकसित साधकों के कल्याण के लिए उपासना अर्थात् अनुशासन के इस उपाय की व्यवस्था की है। यदि वेदान्ती यह कहते हैं कि (कम से कम) कुछ व्यक्तियों को प्रत आत्मा की अनुमति के लिए प्रारम्भ में सष्टि तथा स्रष्टा के विचार को ग्रहण करना भावश्यक है तो वह कौन सा मापदण्ड होगा जिससे हम एक साधक और दूसरे साधक में अन्तर जान सकें। इस मंत्र में साधकों के भेद बताये गये हैं। ___ मनष्य की बौद्धिक क्षमता तथा मानसिक गठन के अनुसार अध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले व्यक्तियों को तान श्रेणियों में बाँटा गया है---उत्तम, मध्यम तथा हीन । __ वेदान्त की दृष्टि में जन्म से ही कोई मनुष्य प्रखर बुद्धि वाला नहीं होता । यदि किसी व्यक्ति में जन्म से मन्द विवेक शक्ति पायी जाती है तो इसमें उस का कोई दोष नहीं । बुद्धि-चातुर्य एवं कुशलता तो मानसिक स्थिति पर निर्भर होती है । बुद्धि का प्रखर होना हमारे मन के विक्षेपों के अनुपात से जाना जाता है। हमारा मन जितना अधिक अशान्त रहता है उतनी ही कम विकसित हमारी बुद्धि होती है । इस विचार से अपने मन के निग्रह से मन्द बद्धि भी उच्च स्तर पर लायी जा सकती है। मन की इस स्थिति को दैनिक उपासना द्वारा प्राप्त किया जा सकता है । इस प्रकार वेदान्त-साधना के लिए प्रारम्भ में साधकों को कई वर्ष घोर उपासना करने के लिए प्रोत्साहन दिया जाता है ताकि उनके मन तथा बुद्धि पूर्णतः स्थिर हो सकें । वेदान्त-सम्बन्धी अनुभूति के लिए एकमात्र साधन मन तथा बुद्धि का निरोध करना है । वेदान्त-द्रष्टा कहते हैं कि पदार्थमय संसार तथा परमात्म-तत्त्व से इसकी उत्पत्ति का प्रसंग केवल उन साधकों के उपयोग के लिए दिया जाता है For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy