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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । १८५ । एवं बुद्धि को यह तत्त्व समझान के लिए किया जाता है । शास्त्रों की हम पर यह अनुकम्पा है क्योंकि उन्हों ने अपने अबोध बच्चों के कल्याण का इतना ध्यान रखा । स्वसिद्धान्त व्यवस्थासुद्वैतिनो निश्चिता दृढम् । परस्पर विरुध्यन्ते तैरयं न विरुध्यते ॥१७॥ 'द्वैत' अपने अनुभूत सिद्धान्तों से चिपटे रह कर उन्हें ही सत्य मान बैठते हैं । इसलिए वे एक दूसरे का विरोध करते रहते हैं जब कि अद्वैत उनके प्रति विरोध-भावना नहीं रखते । _ 'कपिल', 'कणाद', 'जिन' तथा अन्य द्वैतवादो ऋषियों के सिद्धान्तों को उनके अनुयायी दृढ़तापूर्वक मानते रहते हैं । अपने विवारों में कट्टरता की अधिकता रखने के कारण इन (विविध) मतानुयायियों में पारस्परिक विरोध पाया जाता है और वे एक-दूसरे के सिद्धान्तों का खण्डन करने में व्यस्त रहते हैं। पिछले अध्याय में हम बता चुके हैं कि द्वैतवादियों के विविध मतों ने वास्तविक-तत्त्व के विषय में अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है । हम वेदान्ती उनसे कोई संघर्ष नहीं करते और न ही झगड़ा करने की इच्छा रखते हैं। वे तो पारस्परिक संघर्ष के फलस्वरूप स्वयं कह रहे हैं कि किसी सिद्धान्त द्वारा सष्टि के नानात्व की व्याख्या नहीं की जा सकती । इस दिशा में असफल रहने के कारण वे स्वयं कह रहे हैं कि इस दृष्ट-संसार की वास्तव में उत्पत्ति नहीं हुई । अजातवाद का नारा केवल द्वैतवादी लगाया करते हैं। उनमें पारस्परिक मतभेद पाया जाता है किन्तु हमारा उनसे कोई झगड़ा नहीं । पाने वाले मंत्र में यह बताया जायेगा कि अद्वैतवादी कोई झंझट क्यों नहीं रखते । अद्वैतं परमार्थो हि द्वैतं तभेद उच्यते । तेषामुभयथा द्वैतं तेनायं न विरुध्यते ॥१८॥ वास्तविक यथार्थता ही अद्वैतभाव है; द्वैत तो इस का भेद For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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