SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १०५ ) पाई जा सकें । एक आलोचक की दृष्टि में युमित ठीक नहीं बैठती। वह तो यह कहता है कि स्वप्न-द्रष्टा इन पदार्थों को अपने भीतर नहीं देखता बल्कि दूरस्थ स्थानों में; इसका कारण यह है कि कई बार वह दूर-दूर के स्थानों तथा उनमें पाये जाने वाले विविध पदार्थों को देखने लगता है । यदि वह स्वप्न में दूर-दूर तक उड़ानें भर सकता है तो वे वस्तुएँ निश्चय से वहाँ (दूर स्थानों में) ही होंगी। ___इस शंका का समाधान करते हुह श्री गौड़पाद ने वे युक्तियों दी हैं जिनके द्वारा स्वप्न में लम्बी यात्राएँ करते तथा दूर-दूर स्थानों पर रहने वाले व्यक्तियों को देखते हुए भी हम स्वप्न को मिथ्या मानते हैं । 'स्वप्न' का अनुभव करने के लिए स्वप्न-द्रष्टा अपने शरीर को छोड़ कर कहीं और स्थान पर नहीं जाता क्योंकि जिस क्षण वह निद्रा की गोद में पहुँच जाता है तभी से वह सैंकड़ों मील के दूरवर्ती स्थानों को देखने लगता है । 'काल' को आधार मान कर ऐसी बात को मानना यथार्थ नहीं दीखता क्योंकि 'जाग्रत' तथा 'स्वप्न' अवस्था के बीच का अन्तर इतना कम होता है कि इस (समय) में किसी व्यक्ति को उस के शरीर सहित दूर के स्थानों पर नहीं पहुँचाया जा सकता। साथ ही स्वप्न द्रष्टा निद्रा से जागने पर अपने कमरे में ही लेटा होता है न कि अपने उस मित्र के घर में जिसके पास वह स्वप्न में बैठा हुप्रा था । वास्तव में वह उसी स्थान पर पड़ा होता है जहाँ वह सोया था, चाहे स्वप्न में उसने उत्तरी अथवा दक्षिणी ध्रुव तक लम्बी उड़ानें क्यों न भरी हों । इस लिए श्री गौड़पाद ने कहा है कि स्वप्न में हम दूरस्थ प्रदेश में क्यों न घूमते रहे हों किन्तु वास्तव में हम एक ही स्थान पर पड़े रहते हैं । यह अनुभव तो हमारे अपने भीतर प्राप्त होता है जिससे हम स्वप्नावस्था को प्रवास्तविक कह सकते हैं । इस प्रकार 'काल' तथा 'अन्तर' के विचार से स्वप्न के अनुभव यथार्थ नहीं हैं, जिस कारण हमारे स्वप्न के सभी व्यापार पूर्ण रूप से मिथ्या सिद्ध हुए। For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy