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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १०४ ) कारण यह है कि स्वप्नावस्था में प्रत्यक्ष होने वाले सभी पदार्थ शरीर में बने रहते हैं। मनुष्य अपने शरीर अथवा बाह्य-संसार (जाग्रतावस्था) से अनभिज्ञ रहता हुआ आँखें मूंदे लेटा होता है। तभी उसे स्वप्नावस्था का अनुभव होता है । इसलिए स्वाभाविक है कि वह स्वप्न-जगत में सब कुछ अपने शरीर में ही देखता है । हमें भली भांति विदित है कि हमारे शरीर में यान, भवन, पर्वत, नदी अथवा जानवरों के लिए रत्ती भर स्थान उपलब्ध नहीं है । स्वप्न की बृहदाकार वस्तुएँ तो एक अोर रहीं, यहाँ (शरीर में) एक बाल घरने के लिए भी कोई जगह नहीं है। ___संवृतत्वेन-एक स्थान में ही सीमित रहने के कारण स्वप्नावस्था को मिथ्या कहने का एक और कारण है । मनुष्य के हृदय में स्वप्न में देखी जाने वाली वस्तुएँ समा नहीं सकतीं। इसलिए स्वभावतः इसमें वे वस्तुएँ नहीं आ सकतीं जो हमें स्वप्नावस्था में यथार्थ दिखायी पड़ती हैं। प्रदीर्घत्वाच्च कालस्य गत्वा देशान्नपश्यति । प्रतिबुद्धश्च वै सर्वस्तस्मिन्देशे न विद्यते ॥२॥ बहुत कम समय होने के कारण स्वप्न-द्रष्टा स्वयं जाकर इन वस्तुओं को देख नहीं पाता । जागने पर वह स्वप्न-द्रष्टा अपने आप को उस स्थान पर नहीं पाता जहाँ वह स्वप्न देखते हुए विद्यमान था । 'दर्शन' से सम्बन्धित संस्कृत के धर्म-ग्रन्थों में लेखकों ने अपने शिष्यों को किसी विशेष भाव का दिग्दर्शन कराने के लिए एक बड़े उपयुक्त साधन को अपनाया है । यह है दर्शनाचार्य द्वारा बताये गये तथ्यों पर होने वाली पालोचना की पहले से कल्पना कर लेना और उन टीका-टिप्पणियों का स्वतः समाधान कर देना । इस मन्त्र में उस सम्भावित आपत्ति का उत्तर दिया गया है जो पहले मन्त्र को पढ़ने के बाद उठायी जा सकती है । पिछले मंत्र में श्री गौड़पाद ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि मनुष्य के हृदय में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ स्पप्न में दीखने वाली वस्तुएँ For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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