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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उग्गह पुं [अवग्रह] इन्द्रियों द्वारा होने वाला सामान्य ज्ञान, अवग्रह। रहिदं तु उग्गहादिहि। (प्रव.५९) उग्गह सक [उद्+ग्रह] प्राप्त करना, ग्रहण करना। ते तेहिं उग्गहदि। (पंचा.१३४) उग्गाह सक [अव+गाह] अवगाहन करना। उग्गाहेण बहुसो, परिभमिदो खेत्तसंसारे। (द्वा.२६) उच्च सक [वद्] कहना, कथन करना, बोलना। (स.४७, निय.७,२९,८४-८९) ववहारेण दु उच्चदि। (स.४.3) उच्चार पुं [उच्चार] मलोत्सर्ग, विष्ठा। उच्चारादिच्चागो। (निय.६५) उच्चारण न [उच्चारण] कथन। वयणोच्चारणकिरियं । (निय.१२२) उच्छाह पुं [उत्साह] उत्साह, उद्यम, शक्ति, सामर्थ्य, पराक्रम उच्छाहभावणा। (चा.१३,१४) उच्छेद पुं [उच्छेद] नाश, उन्मूलन। सस्सधमध उच्छेदं। (पंचा.३९७ शाश्वत्, उच्छेद, भव्य, अभव्य, शून्य, अशून्य, विज्ञान, और आवेज्ञान, इन आठ विकल्पों का सद्भाव होने पर ही आत्मा का सद्भाव माना गया है। उज्झ सक [उज्झ्] त्याग करना, छोड़ना। भावविमुत्तो मुत्तो, ण य मुत्तो बंधवाइ मित्तेण। इय भाविऊण उज्झसु, गंथं अब्अंतरं धीरं।। (भा.४३) उज्झसु (वि. आ.म.ए.) उज्जद वि [उद्यत] प्रयत्नशील, उद्यमी। वेज्जावच्चत्थुज्जदो For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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