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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 64 समणो। (प्रव.चा.५०) उज्जाण न [उद्यान] बगीचा, आराम, उद्यान। (बो.४१) उज्जाणे तह मसाणवासे वा। उज्जोययर वि [उद्योतकर] प्रकाशवान्, चमकवाले। (ती.भ.२) उजिमय वि [उज्झित] 1.परित्यक्त, फैका हुआ, विमुक्त। (भा.२०, गहि उज्झियाई मुणिवरकलेवराई तुमे अणेयाइं। (भा.२४) सव्वे वि पुग्गला खलु एगे भुत्तुझिया हु जीवेण। (द्वा.२५ 2.रहित। उज्झियकालं तु अत्यिकायत्ति। (प्रव.जे.ज.वृ. उडु त्रि [ऋतु] ऋतु। (द्वा.४१) उडुआदितेसट्ठी। (दा.४१) उड्ढ न [ऊर्ध्व] ऊपर, ऊँचा। (पंचा.९२,स.३३४) उण्ह पुं [उष्ण] आतप, गर्मी। (प्रव.६८) उत्त वि [उक्त कथित, कही गई, अभिहित। सुत्ते ववहारदो उत्ता। (स.६७) जे णिच्चमचेदणा उत्ता। (स.६८) उत्ता मग्गेण सावि संजुत्ता। (सू.२५) -लिंग वि [लिङ्ग] उक्त लिङ्ग, कथित लिंग। दुइयं च उत्तलिंग। (सू.२१) ग्यारहप्रतिमाधारी को सूचित किया गया है। उत्तम वि [उत्तम] श्रेष्ठ, परम, उत्कृष्ट। (स.२०६, भा.१६१, बो.४७) उत्तम अळं आदा। (निय.९२) -अट्ठ वि [अर्थ] उत्तमार्थ, उत्तमता के अर्थ युक्त। उत्तमअट्ठस्स पडिकमणं। (निय.९२) -देव पुं दिव] उत्तम देव, भगवान्, अरिहन्त। उत्तमदेवो हवइ अरहो। (बो.३३) -पत्त न [पात्र] उत्तमपात्र। For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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