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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 161 देशविरद वि [देशविरत] श्रावक, उपासक, पञ्चमगुणस्थानवर्ती। देशविरत श्रावक के ग्यारह भेद हैं- दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग। (चा.२२) देसिद वि [दर्शित] बताए गए, दिखलाए गये। (स.३०९) जे परिणामा दु देसिदा सुत्ते। देसिय वि [देशित] उपदिष्ट, उपदेशित, कथित, प्रतिपादित। सव्वं बुद्धेहि देसियं धम्मं । (लिं.२२) देह पुं न दिह] शरीर, काय। (पंचा.१२९,स.२६,प्रव.७१, मो.१२) -अंतरसंकम वि [अन्तरसंक्रम] अन्यपर्याय का सम्बन्ध। (प्रव.जे.७८)-उन्भव वि [उद्भव शरीर से उत्पन्न । (प्रव.७८) -उड पुं न [पुट] शरीर रूपी पात्र। चिंतेहि देहउडं। (भा.४२) -उडी स्त्री [कुटि] शरीररूपी कुटिया। (भा.१३१) रोयग्गी जाए डहइ देहउडिं। -गद वि [गत शरीरगत, शरीर को प्राप्त। (प्रव.२०) -गुण पुं न [गुण] शरीर गुण, शरीर के गुण । देहगुणे थुळते। (स.३०) -णिम्मम वि निर्मम] शरीर के प्रति ममत्व न होना , शरीर के प्रति अनुराग न होना, देह प्रेम न होना। देहणिम्ममा अरिहा। (स.४०९)-त्थ वि [स्थ] शरीरस्थ, शरीर में रहता हुआ। देहत्थं किं पितं मुणह। (मो.१०३) तह देही देहत्थो। -दविण न [द्रविण] शरीर और धन। (प्रव.जे.९८) -पधाण वि [प्रधान] शरीर की मुख्यता, जिसमें शरीर की प्रधानता है। (प्रव.जे.५८) देहपधाणेसु विसयेसु। -प्पवियारमस्सिद वि For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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