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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 95 आसक्ति, कुशीलसंपर्क। कुसीलसंगं ण कुणदि विकहाओ। (बो.५६) -संसग्ग पुं न [संसर्ग] कुशील सम्बन्ध। (स.१४७) कुसीलसंसग्गरायेण । (स.१४७) केइ/केई अ [कोऽपि] कुछ भी, कोई भी। (स.६१, निय.१८५) जीवस्स णत्थि केई। (स.५३) ण दु केई णिच्छयणयस्स। (स.५६) केई अ [किंचित्] कुछ भी। (निय.९७) परभाव णेव गेहए केइं। (निय.९७) केणवि अ केनापि] कोई भी, किसी के साथ। वेरं मज्झंण केणवि (निय.१०४) मा वज्झेज्ज केण वि । (स.३०१) केरिस वि कीदृश] कैसा, किस तरह का। (शी.४०) केवल वि केवल] अद्वितीय, अनुपम, शुद्ध, ज्ञान, विशेष, अकेला (स.९,निय.९६) जं केवलि त्ति णाणं । (प्रव.६०) -णाण न [ज्ञान] केवलज्ञान, समस्त पदार्थो एवं उनके समस्त परिणमनं. को युगपत् देखने वाला ज्ञान |विज्जदि केवलणाणं । (निय.१८१ -गाणी वि [ज्ञानिन्] केवलज्ञानवाला,सर्वज्ञ ।केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं । (निय.१५९,१७२) -दसण न [दर्शन केवलदर्शन,पूर्णबोध । (निय.९६)-दिट्ठि स्त्री [दृष्टि] केवल दर्शन 1(निय.१८१) -भाव पुं [भाव केवलभाव, केवलज्ञानरूप भाव (बो.३९) -वीरिय पुं न [वीर्य] केवलशक्ति, केवलज्ञानरूपी शक्ति। (निय.१८१) -सत्ति स्त्री शक्ति केवलज्ञानरूपी शक्ति (निय.९६) -सोक्ख न सौख्य] केवलज्ञानरूपी सुख। (निय.१८१) केवलसोक्खं च केवलं विरियं। (निय.१८१) For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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