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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 96 केवलि वि [केवलिन्] केवलज्ञानी, सर्वज्ञ, चराचर को जानने वाला। (स.२९, निय.१२५, द.२२) परमट्ठो खुल समओ, सुद्धो जो केवली मुणी णाणी। (स.१५१) ववहारणएण केवली भगवं। (स.१५९) -गुण पुं न [गुण] केवली का गुण, केवलज्ञान | केवलिगुणे थुणदि जो। (स.२९) -जिण पुं जिन] केवलिभगवान्। केवलिजिणेहि भणियं। (द.२२) -सासण न [शासन] केवलिशासन। (निय.१२५) केवलिणो (ष.ए.निय.१७२, स.२९) के वि अ [केऽपि किञ्चित्अपि] कुछ भी, कोई भी। जे के वि दव्वसवणा। (भा.१२१) केस पुं [केश] केश, बाल। (भा.२०) केसणहरणालट्ठी। (भा.२०) केसव पुंकेशव] अर्धचक्रवर्ती, नारायण, केशव । (भा.१६०) केहिंचिदु अ [कैश्चित्तु] कितनी ही। (स.३४५, ३४६) को स [किम्] कौन। को णाम भणिज्ज बुहो। (स.२०७) को (प्र.ए.) कोइ/को अ [कोऽपि] कोई भी। (स.५८, निय.१६६, प्रव..२७) जह कोइ भणइ एवं। (निय.१६६) कोडि स्त्री कोटि] करोड़,संख्या विशेष। (भा.४) जो कोडिए ण जिप्पइ। (मो.२२) कोडिए (ष.ए.) स्त्रीलिङ्ग सम्बन्धी ए प्रत्यय लगने पर दीर्घ हो जाता है। (हे. टाङस्डेरदादिदेद्वा तु डसेः ३/२९) परन्तु यहां दीर्घ न होकर हस्व ही रह गया। अपभ्रंश में ए प्रत्यय लगने पर दीर्घ का हस्व, हस्व का हस्व, हस्व का दीर्घ और For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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