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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 94 ५.२७) कुणिम पुं न दे] शव, मृतक। (भा.४२) कुणिमदुग्गंधं । (भा.४२) कुदोचिवि अ [कुतश्चित् अपि] किसी से भी। कुर सक [कृ] करना। कुरु (वि.म.ए.भा.१३२) कुरु दयपरिहरमुणिवर। कुल पुं न [कुल] कुल, वंश, जाति। (निय.४२,५६,द.२७) ण वि य कुलोण वि य जाइसंजुत्तो। (द.२७) कुब्ब सक [क] करना। (स.८१,३०१, निय.१५२, चा.१३) कुव्वइ कुव्वदि (व.प्र.ए.स.३०१,३४९) कुव्वए (व.प्र.ए.स.२१५) कुब्ति (व.प्र.ब.स.८६) कुळतो (व.कृ.प्र.ए.निय.१५२) कुवंता (व.कृ.प्र.ब.स.१५३) सीलाणि तहा तवं च कुल्ता । (स.१५३) कुळतस्स (व.कृ.ष.ए.स.२३९, २४४) उवघादं कुव्वंतस्स। कुव्वंताणं (व.कृ.ष.ब.स.३२३) णिच्चं कुव्वंताणं, सदेवमणुयासुरे लोए। (स.३२३) वर्तमानकाल कृदन्त के न्त एवं माण प्रत्यय होने पर किसी भी क्रिया के तीनों लिङ्गों के दोनों वचनों में सातों विभक्तियों में रूप बनते हैं। कर्ता, कर्म आदि के अनुसार इनका प्रयोग होता है। कुसमयमूढ वि [कुसमयमूढ] मिथ्यामत में मुग्ध । (शी.२६) कुसल वि [कुशल] निपुण, चतुर, दक्ष। तवसीलमंतकुसला, खिवंति विसयं विसं व खलं। (शी.२४) कुसील न [कुशील] संयम रहित, चारित्र रहित, ब्रह्मचर्य रहित। कम्ममसुहं कुसीलं। (स.१४५) -संग पुन [सङ्ग] कुशील के प्रति For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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