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कालिदास पर्याय कोश उसने गाने वाली स्त्रियों के ओठों पर दाँत के और जाधों पर नखों के ऐसे घाव कर दिए थे, कि अब वे अपने अधुरों पर बाँसुरी और जाघों पर वीणा रखतीं, तब उन्हें बड़ा कष्ट होता।
वीर्य
1. अवदान :-[अव + दो + ल्युट्] पराक्रम, शूरवीरता, कीर्तिकर कार्य।
नैर्ऋतघ्नमथ मन्त्रवन्मुनेः पापदस्वमवदानतोषितात्। 11/21
जैसे सूर्य, लकड़ी जलाने का तेज सूर्यकान्त मणि को दे देता है। 2. वीर्य :-[वीर + यत्] पराक्रम, बहादरी, बल, सामर्थ्य, पुंस्त्व, शक्ति, क्षमता,
तेज, आभा, कान्ति। न चान्यस्तस्य शरीररक्षा स्ववीर्य गुप्ता हि मनोः प्रसूतिः। 2/4 रही अपने शरीर रक्षा की बात, उसके लिए उन्होंने किसी सेवक की आवश्यकता नहीं समझी, क्योंकि जिस राजा ने मनु के वंश में जन्म लिया हो, वह अपनी रक्षा तो स्वयं कर ही सकता है। तुतोष वीर्याति शयेन वृत्रहा पदं हि सर्वत्र गुणैनिधीयते। 3/62 उनकी इस अद्वितीय वीरता को देखकर इन्द्र बड़े संतुष्ट हुए, ठीक भी था, क्योंकि गुणों का आदर सर्वत्र होता ही है। तं कृपामृदुरवेक्ष्य भार्गवं राघवः स्खलितवीर्यमात्मनि। 11/83 तेजस्वी दयालु राम ने एक बार निस्तेज परशुराम जी को देखा।
व्रण
1. मार्ग :-[मार्ग + घञ्], व्रण चिह्न।
ते पुत्रयोनैऋत शस्त्रमार्गा नार्दा निवाले सदयं स्पृशन्त्यौ। 14/4 पुत्रों के शरीर के जिन अंगों पर राक्षसों के शस्त्रों के घाव बने थे, वहाँ वे दोनों
माताएँ इस प्रकार सहलाने लगीं मानो घाव अभी हरे हों। 2. व्रण :-[व्रण + अच्] घाव, जख्म, चोट।
परामृशन्हर्षजडेन पाणिना तदीयमङ्गं कुलिशवणाङ्कितम्। 3/68 तब राजा दिलीप ने उनकी बड़ी प्रशंसा की और जहाँ उन्हें वज्र लगा था, वहाँ हाथों से धीरे-धीरे सहलाने लगे। आत्मनः समुहत्कर्म व्रणैरावेद्य संस्थितः। 12/55
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